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प्रास्ताविकम् लिङ्गविचार को शब्दानुशासनरूप व्याकरण का एक अवयव स्वीकार किया गया है । जैसे प्रकरण, देश और काल से किसी भी शब्द के अर्थ निश्चित करने में सहायता मिलती है, वैसे लिङ्ग से भी अर्थनिर्धारण में सुविधा होती है | कहा भी है
अर्थात् प्रकरणाल्लिङ्गादौचित्याद् देशकालतः। शब्दार्थास्तु विभज्यन्ते न रूपादेव केवलात् ॥
(कवि०, कृत्० - मङ्गलाचरण) । (वाक्यात् प्रकरणादर्थात् – पाठा० - वा० प० २।३१४)।
इस लिङ्ग का अनुशासन (बोधन, विचार) जिसमें या जिससे किया जाता है, उसे लिङ्गानुशासन कहते हैं । कलापव्याकरण में लिङ्गानुशासन की रचना आचार्य दुर्गसिंह ने की है । बीकानेर तथा अहमदाबाद के हस्तलेखों में इस लिङ्गानुशासन की केवल ८६ कारिकाएँ मिलती हैं, उनमें वृत्ति नहीं है । पुण्यपत्तन (पूना) से १९५२ ई० में जो कातन्त्रलिङ्गानुशासन प्रकाशित हुआ है, उसमें ८७ कारिकाएँ तथा दुर्गसिंह की वृत्ति भी है । इस लिङ्गानुशासन में ७ प्रमुख प्रकरण हैं -
१. स्त्रीलिङ्गप्रकरण । २. पुंल्लिङ्गप्रकरण। ३. नपुंसकलिङ्गप्रकरण | ४. उभयलिङ्गप्रकरण । ५. स्त्री-नरलिङ्गप्रकरण । ६. स्त्री-नपुंसकलिङ्गप्रकरण तथा ७. सर्वलिङ्गप्रकरण । गुरुपद हालदार के लेखानुसार इस लिङ्गानुशासन का उल्लेख कश्मीर के ग्रन्थों में पाया जाता है (द्र०, व्या० द० इति०, पृ० ४२६-२७)।
आचार्य शर्ववर्मा या कात्यायन ने लिङ्गानुशासन लिखा था- इसमें कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता । कलापपञ्जिकाकार त्रिलोचन ने श्वशुर शब्द पर दुर्गसिंह का जो अभिमत लिखा है, उससे दुर्गसिंह-द्वारा लिङ्गानुशासन का बनाया जाना अवश्य ही प्रमाणित होता है । मुद्रित लिङ्गानुशासन के अन्त में एक श्लोक है -
दुर्गसिंहोऽथ दुर्गात्मा दुर्गो दुर्गप इत्यपि । यस्य नामानि तेनैव लिगवृत्तिरियं कृता॥
(पाठा० - तेनेदं चक्रे लिङ्गानुशासनम्) । इस आधार पर लिङ्गानुशासन तथा उसकी वृत्ति के रचयिता दुर्गसिंह माने जाते हैं । गुरुपद हालदार ने तीन दुर्गसिंह माने हैं - (१) वृत्तिकार । (२) टीकाकार