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कातन्त्रव्याकरणम्
प्रणम्य सर्वकर्तारं सर्वदं सर्ववेदिनम्। सर्वीयं सर्वगं सर्वं सर्वदेवनमस्कृतम् ॥ दुर्गसिंहोक्तकातन्त्रवृत्तिदुर्गपदान्यहम् ।
विवृणोमि यथाप्रज्ञमज्ञसंज्ञानहेतुना॥ एक त्रिलोचन ने कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट की रचना की थी । इन दोनों की एकता या भिन्नता के विषय में निश्चयेन कुछ नहीं कहा जा सकता । इस पर किए गए आक्षेपों का समाधान करने के लिए कविराज सुषेण विद्याभूषण ने कलापचन्द्र नामक एक विस्तृत व्याख्या लिखी है। इसमें ‘वृत्तिकार-टीकाकार-हेमकर-कुलचन्द्र' आदि के भी मत दिखाए गए हैं। जिस अंश पर कलापचन्द्र उपलब्ध नहीं होता, उस पर आचार्य बिल्वेश्वर की टीका मुद्रित रूप में प्राप्त होती है । इसकी अनेक व्याख्याएँ उपलब्ध हैं | जैसे - कर्णोपाध्याय की उद्योत व्याख्या, मणिकण्ठ भट्टाचार्य की त्रिलोचनचन्द्रिका, सीतानाथ सिद्धान्तवागीश की सञ्जीवनी टीका, पीताम्बर विद्याभूषण की पत्रिका, प्रबोधमूर्तिगणि की दुर्गपदप्रबोध और देशल की पञ्जिकाप्रदीप |
अन्य उपयोगी ग्रन्थ १. किसी अज्ञातनामा ग्रन्थकार ने कातन्त्रविभ्रम नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी । इसकी व्याख्या क्षेमेन्द्र, चारित्रसिंह तथा गोपालाचार्य ने लिखी है । क्षेमेन्द्रकृत व्याख्या की टीका मण्डन ने बनाई थी । कातन्त्रविभ्रम पर अवचूरि नामक टीका का उल्लेख प्राप्त होता है, परन्तु उसका रचयिता ज्ञात नहीं है | कातन्त्रविभ्रम में मूल २१ कारिकाएँ तथा १५० शब्द हैं। जो शब्द किन्हीं काव्यशास्त्रों में अर्थविशेष में प्रयुक्त रहे होंगे, परन्तु आज वे उन अर्थों में प्रसिद्ध नहीं रहे । ऐसे ही शब्दों को यहाँ प्रश्नोत्तररूप में प्रस्तुत किया गया है । श्रीजिनप्रभसूरि द्वारा रचित कातन्त्रविभ्रम नामक ग्रन्थ इससे भिन्न प्रतीत होता है ।
२. यङ्लुक् की एक संज्ञा है - 'चर्करीत' । चर्करीतान्त प्रयोगों की सिद्धि चर्करीतरहस्य की २० कारिकाओं में कविकण्ठहार ने दिखाई है । इस पर उनकी स्वोपज्ञ टीका भी है । मङ्गलश्लोक इस प्रकार है
प्रणनम्य महादेवं चर्करीतरहस्यकम् । श्रीकविकण्ठहारोऽहं वावधि वदतां वरः॥