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कातन्त्र व्याकरणम्
दुर्गसिंह ने इसमें अनेक पूर्ववर्ती आचार्यों तथा ग्रन्थों के मतों की व्याख्या की है । कहीं-कहीं पूर्ववर्ती व्याख्याओं में दिए गए आक्षेपों का समाधान भी किया गया है । सूत्रों में अपठित परन्तु अपेक्षित कुछ अंशों की पूर्ति की है । उन्होंने अद्यतन की व्याख्या करते हुए कहा है कि गत रात्रि का अवशिष्ट प्रहर, आगामिनी रात्रि का प्रथम प्रहर तथा दिन के चार प्रहर, कुल मिलाकर ६ प्रहरों के काल को अद्यतन कहते हैं -
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शेषो गतायाः प्रहरो निशाया आगामिनी या प्रहरश्च तस्याः । दिनस्य चत्वार इमे च यामाः कालं बुधा ह्ययतनं वदन्ति ॥
(३।१।२२) ।
इसकी कुछ अन्य विशेषताओं के लिए व्याकरणदर्शनेर इतिहास पृ० २५९, २६४, ३०६, ३३२, ३४४, ३७६, ३९८, ४०७, ४१०, ५२१, ५२२, ५६३, ५६९, ५७० भी देखना चाहिए ।
स्वरचित कृत्सूत्रों पर भी स्वयं वररुचि कात्यायन ने चैत्रकूटी नामक वृत्ति बनाई थी । कविराज सुषेण विद्याभूषण ने “बृंहे: स्वरेऽनिटि बा” (कात० ४ | १ |६८) सूत्र की व्याख्या में वररुचि का एक मत प्रस्तुत किया है- “ तथा च वररुचिः, बृंहबृह्योरमी साध्या बृंहबर्हादयो यदि ।
तदा सूत्रेण वैयर्थ्यं न बर्हा भावके स्त्रियाम् ॥”
गुरुपद हालदार ने व्याकरण दर्शनेर इतिहास ( पृ० ५७९) में कृत्सूत्रों पर वररुचिविरचित टीका का नाम चैत्रकूटी लिखा है । संभवतः किसी हस्तलेख में टीका का नाम भी दिया गया हो । पण्डित वररुचिविरचित कृत्सूत्रवृत्ति का एक हस्तलेख ‘लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृतिविद्यामन्दिर, अहमदाबाद' में सुरक्षित है । परन्तु यह वृत्ति चैत्रकूटी वृत्ति से भिन्न प्रतीत होती है । इस प्रकार कातन्त्रसूत्रों के प्रमुख और प्राचीन वृत्तिकार शर्ववर्मा, वररुचि और दुर्गसिंह हैं, परन्तु वर्तमान में शर्ववर्मा और वररुचि की वृत्तियाँ प्राप्त नहीं होतीं, केवल दुर्गसिंह की ही वृत्ति देवनागरी तथा वङ्गलिपि में मुद्रित प्राप्त है ।
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य वृत्तियाँ भी प्राप्त होती हैं । जैसे - कातन्त्रविस्तर । इसके रचयिता कर्णदेवोपाध्याय श्रीवर्धमान हैं और यह वङ्ग उत्कललिपियों में प्राप्त