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प्रास्ताविक
क्व हरिः शेते ? का च निकृष्टा ? को बहुलार्थः ? किं रमणीयम् ?
षे सेवा वा पररूपम् ॥
"
वद कातन्त्रे कीदृक् सूत्रम् ? शे अर्थात् सूत्र है - "शे षे से वा वा पररूपम् ” (१।५।६ ) | श्लोकोक्त ४ प्रश्नों के उत्तर सूत्र में इस प्रकार दिए गए हैं -
१. क्व हरिः शेते ?
शेषे ।
सेवा |
वा ।
२. का च निकृष्टा ?
३. को बहुलार्थः ?
किं रमणीयम् ?
४.
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पररूपम् ।
'कोऽत्र, कोऽर्थः ' में दो अकारों के मध्यवर्ती विसर्ग को उकारादेश किया गया है - " उभकारयोर्मध्ये" (१।५।७) । पाणिनि ने 'स्' को 'रु' तथा 'रु' को 'उ' आदेश करके ऐसे प्रयोगों की सिद्धि दिखाई है । प्रकृत सूत्रपठित 'मध्ये' पद व्यर्थ होकर ज्ञापित करता है कि क्वचित् आकार के रहने पर भी उक्त कार्य सम्पन्न हो जाए । इसी के फलस्वरूप 'कुरवः + आत्महितम्' इस स्थिति में विसर्ग को उकारादेश होकर 'कुरवोत्महितम्' रूप निष्पन्न होता है। टीकाकार दुर्गसिंह के अनुसार ऋषिवचन को प्रामाणिक मानकर इसे साधु माना जाता है या फिर युगभेद से व्याकरण भी भिन्न होते हैं । अतः उस युग के व्याकरण में उक्त की व्यवस्था की गई होगी । ‘को गच्छति, को धावति' इत्यादि में अकार तथा घोषवान् वर्णों के मध्यवर्ती विसर्ग को उकारादेश होता है | यहाँ भी पाणिनि ने 'स्' को 'रु' तथा 'रु' को 'उ' आदेश किया है । 'क इह - कयिह, क उपरि कयुपरि' इत्यादि प्रयोगों की सिद्धि के लिए विसर्ग का लोप अथवा यकारादेश किया गया है । पाणिनि के अनुसार 'स्' को 'रु', 'रु को 'य्' तथा उसका वैकल्पिक लोप करके उक्त प्रयोग सिद्ध किए जाते हैं। अतः पाणिनीय निर्देश में अनेक सूत्र तथा कार्य होने से गौरव स्पष्ट है । कातन्त्रप्रक्रिया के अनुसार 'देवाय' की तरह 'कयिह' में भी दीर्घ आदेश प्राप्त होता है, परन्तु व्याख्याकारों ने उसे एक पद में ही माना है, भिन्न पदों में नहीं । आचार्य उमापति ने कहा भी है
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देवायेति कृते दीर्घे कहेिति कथं नहि ? सत्यमेकपदे दीर्घो न तु भिन्नपदाश्रितः ॥