________________
२८
कातन्त्रव्याकरणम्
कात बहवो निबन्धनिवहाः सन्त्येव किं तैर्यतो मवाक्यामृतमन्तरेण विलसन्त्यस्मिन् न विद्वज्जनाः। ताराः किं शतशो न सन्ति गगने दोषान्धकारावली - व्याकीर्णे तदपीन्दुनैव लभते मोदं चकोरावली ॥ कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट और आचार्य विजयानन्द ( विद्यानन्द )
आचाय विजयानन्द अथवा विद्यानन्द ने कातन्त्रोत्तर या कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसका दूसरा नाम लेखक के नाम पर विद्यानन्द भी था, कातन्त्रीय परिभाषाओं के व्याख्याकार भावशर्मा ने विद्यानन्द को प्रकीर्णकर्ता कहा है । चर्करीतरहस्य में कवि कण्ठहार ने त्रिलोचन को कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट का कर्ता लिखा है और संभवत: इसी आधार पर डॉ० बेल्वल्कर ने Systems of Sanskrit grammar, pp. 69 में त्रिलोचन को ही कातन्त्रोत्तरपरिशिष्ट का कर्ता बताया है | ग्रन्थकार ने अन्त में कहा है - इसकी रचना से मुझे जो पुण्य मिला हो, उससे मनुष्यों के त्रिविध दुःख नष्ट हो जाएँ और उनकी भावना शिव= कल्याणमयी हो जाए -
सहेतुकमिहाशेषं लिखितं साधुसङ्गतम् । अतः शृण्वन्तु धीमन्तः कौतुकोत्तालमानसाः ॥ कातन्त्रोत्तरनामायं विद्यानन्दापराह्वयः ।
मानं चास्य सहस्राणि स्वर्वैद्यगुणिता रसाः ॥
निर्माय सद्ग्रन्थमिमं प्रयासादासादितः पुण्यलवो मया यः ।
तेन त्रिदुःखापहरो नराणां कुर्याद् विवेकं शिवभावनायाम् ॥
पाटनस्थ जैन ग्रन्थागारों के हस्तलिखित ग्रन्थों के चीपत्र, पृ० २६१ पर कातन्त्रोत्तर का उल्लेख है । इसकी प्रतिलिपि सं० १२०८, पोषषष्ठी, शनिवार को जल्हण नामक वणिक् ने अपने पुत्र के अध्ययनार्थ की थी । इससे कातन्त्रोत्तरकार का समय उससे पूर्व ही होना चाहिए ।
कातन्त्र-धातुपाठ
तृतीय आख्यात अध्याय में आचार्य शर्ववर्मा के कुछ सूत्र इस प्रकार हैं"दिवादेर्यन्, नुः ष्वादेः, तनादेरुः, ना क्र्यादेः, कर्तरि रुचादिङानुबन्धेभ्यः, इन्- ञ्