________________
कातन्त्रव्याकरणम्
आकार तथा भो-शब्द से परवर्ती विसर्ग के स्थान में यकारादेश तथा उसका प किया है। जैसे- 'देवा आहु:- देवायाहुः । भो अत्र - भोयत्र' । पाणिनि ने यहाँ 'तू' को 'रु', 'रु' को 'य्' तथा 'य्' का वैकल्पिक लोप किया है, जिससे उनकी या में गौरव स्पष्ट है । 'देवा गताः, भो यासि' इत्यादि में विसर्ग का लोप होता | प्राणिति के अनुसार 'सु' को 'न', 'रु' को 'य्' तथा उसका लोप किया जाता | 'सुपी, सुतू:' इत्यादि में विसर्ग को रकारादेश का विधान किया जाता है सुविसु इस अवस्था में " व्यञ्जनाच्च" (२।१।४९) से सि दोप, "रेफसोर्विसर्जनीयः " ( २ | ३ | ६३) से 'स्' को विसर्ग, "नामिपरो रम्" (२।१२) से विसर्ग को रेफ, "इरुरोरीरूरौ” (२| ३ |५२ ) से 'ईर् ' आदेश एवं सोर्तिसर्वनीयः" (२।३।१३) ने पुनः विसर्ग होने पर 'सुपीः, सुतूः’ प्रयोग सिद्ध न है। पाणिति के अनुसार यहाँ सुलोप, रेफ, उपधादीर्घ तथा विसर्ग आदेश होते ! इस प्रकार एक कार्य की न्यूनता होने से पाणिनीय प्रक्रिया संक्षिप्त कही जा सकती है । 'अग्निर्गच्छति, अग्निरत्र' इत्यादि की सिद्धि के लिए विसर्ग को रेफ आदेश
14
गया है । पाणिनि ने एतदर्ध 'सू' को 'रु' आदेश किया है । 'गीर्पतिः, धूर्पतिः, पितरत्र, पितर्यातः' आदि की सिद्धि के लिए भी विसर्ग को रेफ आदेश विहित है । गणिनि ने अष्टाध्यायी में एतदर्थ कोई सूत्र नहीं बनाया है । इसकी पूर्ति वार्त्तिककार ने की है - " अहरादीनां पत्यादिषूपसंख्यानं कर्तव्यम्” (का० वृ० ८|२|७०-वा० ) । कातन्त्र के व्याख्याकारों ने कहीं इस रकारादेश को नित्य और कहीं पर अनित्य दिखाया है । जैसे – “स्वरघोषवतोर्नित्यम्” (१ | ५ | १४ - वा० ) - पितरत्र, पितर्यातः । 'गीपतिः - गीः पतिः' इत्यादि में रेफादेश विकल्प से निर्दिष्ट है । व्याख्याकारों द्वारा इस विषय में अन्य व्याकरणवचनों पर किया गया विचार द्रष्टव्य है । 'एष चरति, न पचति' इत्यादि में विसर्ग का लोप होता है । पाणिनि ने यहाँ 'सु' प्रत्यय का लोप किया है - " एतत्तदोः सुलोपोऽकोरनञ् समासे हलि" ( पा० ६ | १ | १३२)। 'रप्रकृतिरनामिपरोऽपि ” ( 91५1१४) सूत्रपठित 'अपि' शब्द का अधिकार यहाँ भी माना जाता है। जिसके फलस्वरूप 'एषक: करोति, सकः करोति, अनेषो गच्छति, अनी गच्छति' रूपों में विसर्ग का लोप नहीं होता है ।
१५ सूत्रों में विसर्ग के स्थान में जो अनेक आदेश बताए गए 'इल, देवा आहु:' आदि स्थलों में गुण- दीर्घ आदेश प्राप्त होते हैं । उनके समाधानार्थ कातन्त्रकार ने परिभाषासूत्र बनाया है - " न विसर्जनीयलोपे पुनः
तव