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प्रास्ताविकम्
१९ सन्धिः " (१।५।१६) । पाणिनीय व्याकरण में पठित “पूर्वत्रासिद्धम्" (प्र० ८।२।१) सूत्र की असिद्ध-विधि के अनुसार यहाँ सन्धि नहीं होती है | पाणिनीय प्रक्रिया में सूत्रों के पौर्वापर्य का परिज्ञान करना आवश्यक होने से ज्ञान-गौरव विद्यमान है । ___'अग्नी रथेन, पुना रात्रिः' इत्यादि की सिद्धि के लिए रेफ के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती रकार का लोप तथा उस लुप्त रकार से पूर्ववर्ती स्वर को दीघदिश होता है । कातन्त्रकार ने यहाँ एक ही सूत्र द्वारा रेफलोप तथा दीर्घ का विधान किया है । पाणिनि ने रेफलोप के लिए "रो रि" (८।३।१४) तथा दीर्घ के लिए "द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः" (६।३।१११) सूत्र बनाया है । इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया को गौरवाधायक ही माना जाएगा । "रो रे लोपं स्वरश्च पूर्वो दीर्घः" (१।५।१७) इस प्रकृत सूत्र में पठित चकार को अन्वाचयशिष्ट मानने के फलस्वरूप ‘उच्चै रौति' आदि स्थलों में केवल रेफ का लोप ही प्रवृत्त होता है , दीर्घ नहीं । क्योंकि 'एऐ-ओ-औ' ये चार सन्ध्यक्षरसंज्ञक वर्ण सदैव दीर्घ होते हैं, उन्हें दीर्घ करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है - 'नित्यं सन्ध्यक्षराणि गुरूणि'।
इस पञ्चम पाद के तथा सन्धिप्रकरण के अन्तिम सूत्र से छकार को द्वित्व होता है । जैसे – 'वृक्षच्छाया, इच्छति, गच्छति' । कातन्त्र में प्रकृतसूत्र से 'छ्' को द्वित्व होने के बाद "अधोषे प्रथमः" (२।३।६१) सूत्र से 'छ्' को 'च' आदेश होकर उक्त शब्दरूप सिद्ध होते हैं | पाणिनि के अनुसार यहाँ संहिताधिकार म "छे च" (अ० ६।१।७३) से तुगागम, "स्तोः श्चुना श्चुः" (अ० ८।४|४०) से प्राप्त श्चुत्व के असिद्ध होने के कारण "झलां जशोऽन्ते" (८।२।३९) से 'त्' को 'द्' , इस 'द्' को “खरि च" (८।४।५५) सूत्र से प्राप्त चर्च के असिद्ध होने से श्चुत्व 'ज्' तथा 'ज्’ को ‘च्' आदेश होकर 'शिवच्छाया, स्वच्छाया' आदि शब्दरूप सिद्ध होते हैं । इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव स्पष्ट है |
प्रकृत सूत्र में अपि' शब्द का अधिकार होने के कारण ‘कुटीच्छाया-कुटीछाया' में वैकल्पिक तथा 'आच्छाया-माच्छिदत्' में नित्य द्विर्भाव होता है | व्याख्याकारों ने इस द्विर्भावविधान को संहिता में ही विधेय माना है । अत: 'हे छात्र ! छत्रं पश्य' में इसकी प्रवृत्ति नहीं होती है।
आचार्य शर्ववर्मकृत विषयविभाजन
'मोदकं देहि' वचन के अनुसार आचार्य शर्ववर्मा ने सर्वप्रथम ‘मा + उदकम्' को आधार मानकर सन्धिप्रकरण की रचना की है । इस अध्याय के पाँच पादों