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१८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ तथा अवस्थितबन्ध उनतीस ही होते हैं, क्योंकि बन्धस्थान कुल २९ ही हैं। यहाँ अवक्तव्यबन्ध सम्भव नहीं हैं, क्योंकि जीव समस्त उत्तर प्रकृतियों का पूर्णतया अबन्धक अयोगिकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में होता है। उस गुणस्थान से पतन न होने के कारण अवक्तव्यबन्ध नहीं होता। प्रत्येक कर्म की अपेक्षा से भूयस्कार आदि बन्ध-प्ररूपणा : एक स्पष्टीकरण
भूयस्कार आदि दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्म, इन तीन कर्मों की उत्तरप्रकृतियों में होते हैं, शेष ५ कर्मों में उनकी सम्भावना नहीं है। क्योंकि ज्ञानावरण
और अन्तराय कर्म की पांचों प्रकृतियाँ एक साथ ही बंधती हैं और रुकती भी एक साथ हैं। जिससे उक्त दोनों कर्मों का पंच-प्रकृतिरूप एक ही बन्धस्थान होता है।
और जब एक ही बन्धस्थान है तो उसमें भूयस्कार आदि बन्ध सम्भव नहीं हैं। ऐसी स्थिति में तो सदा अवस्थित बन्ध रहता है। इसी प्रकार वेदनीय, आयु और गोत्रकर्म की एक समय में एक ही प्रकृति बंधती है। अतः इनमें भी भूयस्कार आदि बन्ध नहीं
होते।
___ दर्शनावरणकर्म के बन्धस्थान-दर्शनावरणीय कर्म,की नौ उत्तरप्रकृतियों के
नौ, छह और चार प्रकृतियों के तीन बन्धस्थान हैं। दूसरे सास्वादन गुणस्थान तक तो सभी नौ प्रकृतियों का बन्ध होने से प्रथम नौ प्रकृतिक बन्धस्थान है। सास्वादन गुणस्थान के अन्त में स्त्यानद्धित्रिक के बन्ध की समाप्ति हो जाती है, इसलिए दूसरा बन्धस्थान ९-३-६ प्रकृतिक है। यह तीसरे मिश्रगुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक है। और अपूर्वकरण के प्रथम भाग के अन्त में निद्रा और प्रचला के बन्ध का निरोध हो जाने से आगे दसवें गुणस्थान तक ६२-४ (शेष चार) प्रकृतियों का ही तीसरा बन्धस्थान होता है।
इसमें भूयस्कार आदि की प्ररूपणा-दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियों में दो भूयस्कार बन्ध होते हैं-(१) आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के दूसरे भाग से लेकर दसवें सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान तक में से किसी एक गुणस्थान में ४ प्रकृतियों का
१. पंचम कर्मग्रन्थ व्याख्या पृ. ९७ से ९९ तक २. तिण्णि दस अट्ठठाणाणि, दंसणावरण-मोह-णामाणं।
एत्थेव य भुजगास सेसेसेयं हवे ठाणं ॥ गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गा. ४५८. बंधट्ठाणा तिदसट्ठ दंसणावरण-मोह-नामाणं। . सेसाणेगमवट्ठियबंधो, सव्वत्थ ठाण-समो ॥
-पंचसंग्रह २२२ ३. पंचम कर्मग्रन्थ गा. २४ व्याख्या, (मरुधरकेसरीजी), पृ. १०१, १०२
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