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१-अध्यात्म खण्ड यह सब तो इसका मात्र शास्त्रगत रूप है। आ मैं तुझे इसका आध्यात्मिक रूप दर्शाता हूँ जिसका तू नित्य प्रत्यक्ष कर रहा है, परन्तु 'यह क्या है' यह बात तू जान नहीं पाता। मैं पहले बता आया हूँ कि चित्तगत इस छोटेसे मंचपर विशाल जगत नृत्य कर रहा है । आ इसका रहस्य समझाता हूँ। 'चित्त' यह शब्द तेरे लिए कुछ नया नहीं है। दिन रात जिह्वापर आनेवाला यह साधारण शब्द है, जिसका वाच्यार्थ आ-बाल-गोपाल प्रसिद्ध है।
__दो अक्षरोंसे व्युत्पन्न इस छोटेसे शब्दकी भाँति यद्यपि शरीरके भीतर यह अणुसे भी अधिक सूक्ष्म है, तदपि इसपर तथा इसमें इतना विशाल जगत बसा हुआ है कि उसका ओर-छोर पाना कठिन है । निरन्तर चिन्तवन करते रहना इसका स्वरूप है ।
३. महा ठग
उठते-बैठते, सोते-जागते, किसी भी अवस्थामें क्यों न हो इसका वेग कभी शान्त नहीं होता। सर्वत्र सर्वदा दौड़ते रहना इसका स्वभाव है । एक क्षणके लिए भी शान्त होना इसने सीखा नहीं। एक क्षणमें तीन लोकको माप लेनेमें समर्थ इस वामनराजकी थाहको कौन पा सकता है। प्रति क्षण यह अपने भीतर कितने जगत बसाता है और बसा-बसाकर ऊर्णनाभिकी भाँति स्वयं निगल जाता है, यह कौन जानता है। यह सबको देखता है, परन्तु (कुछ एक तत्त्वद्रष्टाओंके अतिरिक्त) इसे कोई नहीं देखता। भीतर बैठा यह प्रतिक्षण नाटक रचता रहता है। हम उस नाटकको देखते हैं, परन्तु नाटक रचने वाले को नहीं। सबके समक्ष सर्वदा विद्यमान रहते हुए भी सबकी दृष्टिसे ओझल बने रहना इसकी चतुर कला है, इसकी माया विद्या है। यह सबको धोखा देता है, असत्यको सत्य और सत्यको असत्य बताता है, परन्तु इसको कोई भी धोखा नहीं दे सकता। धन्य हैं वे जिन्होंने इसको
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