Book Title: Karm Rahasya
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendra Varni Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 208
________________ ३१-पंच लब्धि १९३ चिन्तनमे अथवा उपदेश - श्रवणमें प्रवृत्त होते हैं, और बुद्धिके द्वारा तत्त्वोंका निर्णय करने में सफल हो जाते हैं । परन्तु इतना हो जानेपर भी अधिकतर व्यक्ति ज्ञानाभिमानके कारण अपनेको कृतकृत्य मान बैठते हैं । तदनुसार आचरण करनेकी बजाय दूसरोंको उपदेश देने में ही अपनी इस उपलब्धिका सार्थक्य समझते हैं । फल होता है यह कि न तो स्वयं ऊपर उठ पाते हैं और न ही उनका उपदेश सुनने वाले श्रोतागण ही अपने हृदय में कुछ परिवर्तन कर पाते हैं । 'यथा गुरु तथा शिष्य' की उक्ति के अनुसार जिस प्रकार बौद्धिक विद्वान् चर्चा करने तथा दूसरोंको उपदेश देने में सीमित रहते हैं, उसी प्रकार इनके श्रोता अथवा शिष्यजन भी केवल चर्चाओं तक अथवा दूसरोंको उपदेश देने तक ही सीमित हो कर रह जाते हैं । अपनेको उपदेश देना न उनके गुरु ने सीखा है और न वे सीख पाते हैं । अभिमानवश सच्चे गुरुका अन्वेषण नहीं करते। याद कदाचित् करते हैं तो उन्हें कहीं गुरु दिखाई ही नहीं देते, क्योंकि सर्वत्र दोष-दर्शन करना अभिमानका स्वभाव है । गुण-दर्शन करनेकी उसमें सामर्थ्य ही नहीं है, गुरुकी उपलब्धि कैसे हो ? ३. विशुद्धि लब्धि पूर्वोपार्जित किसी पुण्यके उदयसे अथवा पूर्व-भवमें की गयी साधना के संस्कारवश यदि कोई सत्यान्वेषी दूसरोंको उपदेश देनेकी बजाय क्षयोपशम लब्धिका प्रयोग अपनेको उपदेश देनेमें करे तो वह वुद्धि के क्षेत्र से ऊपर उठकर भाव-लोकमें प्रवेश करता है । ख्याति लाभ पूजा रूप अथवा लज्जा भय गौरव रूप स्वार्थसे अनुरंजित अपनी सकल प्रवृत्तियोंको वह लोकोपकार में लगाने लगता है । फलस्वरूप उसके हृदयके कपाट धीरे-धीरे खुलने लगते हैं अर्थात् उसमें प्रेमका विकास होने लगता है । निःस्वार्थ-सेवा या लोकोपकारवाला ये साधारण प्रेम मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ्य आदिक १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248