________________
२०८
२- कर्म खण्ड
जगत्का
जिसके
तथा कषायों के एक मिथ्या निर्माण हो जाता है, कारण व्यक्ति झूठ-मूठ कर्ता कर्म क्रियाकी अथवा कार्य-कारणकी श्रृंखला में बँध जाता है । उदित हो-होकर डूबते रहनेवाले विकल्पोंके द्वारा भीतरमें मानसिक जन्म-मरण और उसके फलस्वरूप बाहरमें शारीरिक जन्म-मरण करता रहता है । भीतर तथा बाहरका जन्म-मरण रूप यह संसरण ही 'संसार' शब्दका वाच्य है, जिससे मुक्ति पानेके लिये तू न जाने कबसे विफल पुरुषार्थ करता चला आ रहा है ।
कर्म - सिद्धान्त के माध्यम से यहां विश्वकी उस तात्त्विक व्यवस्थाका चित्रण प्रस्तुत किया गया है, जिसमें न किसी की सिफ़ारिश चलती है और न हस्तक्षेप । इसे यदि देख लें तो अहंकार अवश्य ढीला पड़ जाये । तब तू कर्तृत्व पक्षको छोड़कर भवनत्व पक्षका आश्रय ले । करता हुआ अथवा किया जाता हुआ देखनेकी बजाय सर्वत्र होता हुआ देख । यहां न कोई कर्ता है न करण, केवल भूत्वा भवन है । हो-हो कर हो रहा है, कोई भी कुछ कर नहीं रहा है । जो करता है वह भोगता है, जो भोगता है वह करता है । जो करता नहीं वह भोगता भी नहीं, जो भोगता नहीं वह करता भी नहीं । ज्ञाता द्रष्टा भावके द्वारा जो समग्रको और समग्रकी इस सहज कार्य-कारण व्यवस्थाको जानता है वह केवल जानता ही है कुछ करता नहीं है, और जो अहंकार के संकीर्ण कर्तृत्व द्वारा कुछ करता है वह केवल करता ही है, कुछ जानता नहीं है । मन अथवा चित्त एक है, एक समय में एक ही काम कर सकता है । जाननेके समय करनेका और करनेके समय जाननेका काम नहीं कर सकता । जो करता है वही कर्ता कर्म आदिकी श्रृंखला में बँधता. है, जो केवल जानता है वह नहीं ।
जो खलु संसारत्थो जीवो, ततो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसूगदी ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org