Book Title: Karm Rahasya
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendra Varni Granthmala

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Page 225
________________ २१० २- कर्म खण्ड I कि किसी भी कामको मैं करता नहीं हूं । वह होता स्वयं है, मैं केवल उसमें निमित्त होता हूँ । 'मैंने किया' इत्याकारक कर्तृवाच्यकी भाषा में अहंकार पक्षसे देखनेपर यद्यपि कर्तृत्व स्वतन्त्रता प्रतिपादक है, तदपि तात्त्विक व्यवस्था के पक्षसे यही परतन्त्रता प्रतिपादक है, क्योंकि 'मैंने किया ' इत्याकारक अहंकार ही ज्ञानको संकीर्ण करके बन्धनमें डालता है । ऐसे भावके द्वारा ही वह कर्म तथा कर्मफलकी श्रृंखला में जकड़ जाता है । दूसरी ओर 'मेरे द्वारा हुआ' इत्याकारक कर्मवाच्यकी भाषा कर्तापनेकी स्थापना न करके केवल निमित्तपनेकी स्थापना करती है, इसलिये स्वतन्त्रता प्रतिपादक है । न इसमें कर्तृत्वका अहंकार है और न तत्सम्बन्धी बन्धन | विश्वकी जिस स्वाभाविक कार्य-कारण व्यवस्थाका परिचय इस गाथा में चित्रित किया गया है, उसे ही कुछ विशद रीतिसे समझाने का प्रयत्न इस छोटेसे प्रबन्धमें किया है । अध्यात्म प्रधान होने के कारण यहां जिसे उपादानकी भाषामें कहा गया है उसे ही करणानुयोग निमित्त की भाषामें कहता है। यहां जिसे संक्षेपमें कहा गया है वहां उसे ही अत्यन्त विस्तारके साथ कहा गया है । जिस प्रकार थर्मामीटरके पारेको देखकर रोगी की ज्वर- वेदनाका निश्चित अवधारण हो जाता है, इसी प्रकार जीवके परिणामोंको देखकर करणानुयोग कथित द्रव्य-कर्मोकी बन्ध उदय सत्त्व आदि अवस्थाओंका अवधारण हो जाता है । इसी प्रकार बन्ध उदय सत्त्व आदि अवस्थाओंको देखकर जीवके संस्कारोंका और तत्फलस्वरूप होनेवाले उसके परिणामोंका तथा सुख-दुःख आदिका निश्चित अवधारण भी हो जाता है । इस प्रकार यद्यपि अध्यात्मानुयोग और करणानुयोगका प्रतिपाद्य एक ही है, तदपि करणानुयोगमें क्योंकि उसके कर्ता-कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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