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३२- सहज व्यवस्था
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वाले पक्षका तथा पुण्य-पाप वाले पक्षका विस्तार किया गया है इसलिये साधारण दृष्टिसे देखनेपर इन दोनोंमें भेद दीखने लग जाता है । इन दोनों पक्षोंका जो अत्यन्त स्थूल तथा संक्षिप्त विवेचन अध्यात्म शास्त्रोंमें निबद्ध है उसका यहां इतना सूक्ष्म विवेचन किया गया है कि साधारण बुद्धि उसका अध्ययन करते हुए घबरा जाती है । तथापि मेरा स्वाध्याय- प्रेमियोंसे यह अनुरोध है कि वे इस अनुयोगको निष्प्रयोजन न समझकर प्रयोजनभूत समझें। अपने आभ्यन्तर विधानका सुनिश्चित तथा असन्दिग्ध परिचय प्राप्त करनेके लिये और साथ-साथ अपने परिणामोंके सूक्ष्मातिसूक्ष्म उतारचढ़ावको पकड़नेके लिये इस अनुयोगका अध्ययन अवश्य करें । छोटी-छोटी पुस्तकों में उसकी भूमिका मात्र ही प्रस्तुत की जा सकती है, विषय विस्तार नहीं। पहले 'कर्म सिद्धान्त' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई और अब यह पुस्तक प्रकाशमें आ रही है । दोनों एक दूसरेकी पूरक हैं, परन्तु दोनों मिलकर भी करणानुयोगके विस्तृत विषयकी भूमिका मात्र ही हैं।
ॐ शम्
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