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२-कर्म खण्ड तुझे व्यवहार भूमिपर स्थित रहना ही इष्ट है तो तेरे कर्तृत्वके प्रति मुझे कोई आपत्ति नहीं, परन्तु यदि व्यवहार-भूमिको छोड़कर परमार्थ भूमि पर जाना इष्ट है तो तुझे अपना यह रागजन्य मिथ्या कर्तृत्व छोड़ना ही होगा। मैं व्यवहारकी संकीर्ण दृष्टि से बात नहीं कर रहा हूं, परन्तु परमार्थको समग्र दृष्टिसे बात कर रहा हूँ जिसमें तेरी अपनी कोई सत्ता ही नहीं है, तब कर्ता अकर्ता की तो बात क्या ?
हे अहंकार ! तू अपनी इस पारमार्थिक असत्यता को समझ । विश्व तेरे आधीन नहीं हो सकता, तू ही विश्वके आधीन है। तू समग्रका स्वामी नहीं हो सकता, समग्र ही तेरा स्वामी है। तू समग्रमें कुछ भी हेर-फेर नहीं कर सकता, समग्र ही तुझमें हेर-फेर कर रहा है। तु समग्र को नहीं भोग सकता, समग्र ही तुझे ओग रहा है। विश्वकी इस अक्षुण्ण कार्य-कारण व्यवस्था को समझ, तू कृतकृत्य हो जायेगा । हे प्रभु ! तू अपनी प्रभुताको पहचान, कारणों का आश्रय छोड़कर ज्ञानका आश्रय ले, तू प्रभु बन जायेगा, तू विभ बन जायेगा, तु सर्वव्यापक बन जायेगा, तू सर्वगत वन जायेगा। जिस प्रकार किसी बड़े कारखाने में मशीनें तथा उनके पुर्जे बिना किसी मनुष्यके स्वयं काम कर रहे हैं, उसी प्रकार इस विश्वकी सकल व्यवस्था स्वयं काम कर रही है। तेरे अहंकारको अथवा बुद्धिको इसमें कुछ भी हेर-फेर करनेके लिये अवकाश नहीं है। तेरा अज्ञान तथा मिथ्या कर्तृत्व भी वास्तवमें इस सहज व्यवस्थाके आधीन है, इससे पृथक् कुछ नहीं।
"मैं सब कुछ हूँ, मैं सब कुछ कर सकता हूँ, मेरे विना एक तिनका भी नहीं हिल सकता", ऐसे कर्तृत्वकी दृढ़ ग्रन्थि जो तेरे हृदयमें बैठी हुई है, उसकी घोषणा यदि तू अहंकारकी संकीर्ण भुमिमें बैठकर न करे, प्रत्युत अपने विश्वव्यापी ज्ञानकी भूमिमें
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