Book Title: Karm Rahasya
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendra Varni Granthmala

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Page 219
________________ २०४ २-कर्म खण्ड ही वास्तव में उसके आधीन है । तेरी यह अतृप्त कामना भी वास्तवमें उस विधानके अन्तर्गत है, अन्यथा तू जगत्का कीड़ा बनकर न रहता । २. विफल कर्तृत्व विश्व व्यवस्थाको अपने आधीन बनाकर उसे बदल देनेका प्रयत्न करनेमें तेरा स्वातन्त्र्य नहीं है, प्रत्युत इस बात में है कि तू उसे ठोक प्रकार समझकर हृदयसे स्वीकार करे, और अपनी जिस भूलके कारण तू उसके आधीन हो गया है, उस स्वामित्व कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व भावसे विरत होकर उसका ज्ञाता द्रष्टा मात्र बन कर शान्त हो जाये | ज्ञात द्रष्टापना ही तेरा अथवा तेरे ज्ञानका स्वभाव है, वह ही तेरा कर्तव्य है और वह ही तेरा भोक्तव्य | अपने इस पारमार्थिक स्वरूपको भूल जानेके कारण ही तू जगत् का कर्ता हर्ता बना हुआ है । अरे प्रभु ! यह तो सोच कि पूर्णता प्राप्त कर लेनेपर जब तू इसका कर्ता हर्ता नहीं रह सकता तो अपूर्णताकी स्थिति में कैसे रह सकता है । अर्हन्त तथा सिद्धको तो तू अकर्ता कहता है और अपने को कर्ता । अपनी इस विषम कल्पनापर तनिक विचार कर । अहंकारकी संकीर्ण परिधि में स्थित रहते हुए तू इस रहस्यको नहीं समझ सकता । एक क्षण के लिये उसकी परिधि से बाहर आ और अपने ज्ञाता द्रष्टा भाव का आश्रय लेकर सरल रूपसे विश्वकी इस सुन्दर व्यवस्थाका निरीक्षण कर । भरतचक्रो जब वृषभ गिरि पर अपना नाम लिखने लगे तो कोई भी स्थान रिक्त न देखकर निराश हो गये, परन्तु तुरन्त ही अहंकारने उन्हें सलाह दी कि दूसरेका नाम मिटा कर अपना नाम लिख दो । यद्यपि भरतचक्री स्वार्थवश उसके बहकावे में आ गये, तदपि तुरन्त उनका यह विवेक भी जाग्रत हो गया कि जिस प्रकार दूसरेका नाम मिटाकर तूने अपना नाम लिखा है, उसी प्रकार www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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