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३२. सहज व्यवस्था
१. अतृप्त कामना
यहां आकर मैं अपने इस प्रबन्धको समाप्त करता हूं, क्योंकि विकल्पोंका कोई अन्त नहीं, जितने निकालो उतने ही बढ़ते हैं । प्रत्येक अधिकारमें अनेकों अवान्तर विकल्प हो सकते हैं। यदि विस्तार करने लगू तो प्रत्येक अधिकारके लिये एक-एक ग्रन्थकी रचना करनी पड़े । शास्त्र समुद्रका पार पाना कठिन है। इस सारे कथनपर से इतना सारांश ग्रहण कर लेना पर्याप्त है कि बाहरमें तथा भीतरमें सर्वत्र एक तात्त्विक व्यवस्था है, जिसमें मनुष्यके करनेके लिये कुछ भी नहीं है, तथापि अत्यन्त संकीर्ण होनेके कारण अहंकार सर्वत्र अपना ही कर्तृत्व देखता है। ज्ञानका आश्रय छोड़कर बहिर्करण तथा अन्तष्करणका आश्रय लेना उसका स्वभाव है, या यों कह लीजिये अनादिगत इस टेवके कारण ही व्यापक 'अहं' संकीर्ण होकर अहंकार बन गया है। करणोंके आधीन होनेके कारण यह यधपि स्वयं परतन्त्र है तदपि अपने व्यापक स्वरूपको न देख पानेके कारण कूपमण्डूक की भांति इस पारतन्त्र्यमें ही
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