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२-कर्म खण्ड अपने सब अंगोंको बाहरसे समेट कर भीतर खींच लेता है। ऐसा करनेसे उसकी वे सकल शक्तियां जो कि चित्तके माध्यमसे बाह्य जगत्में यत्रतत्र बिखरकर व्यर्थ नष्ट हो रही थीं, अब आत्मानुसन्धानके प्रति नियोजित हो जाती हैं । श्रवण, पठन, पाठन, मनन, चिन्तन, उपदेश आदिसे उपरत होकर वह दर्शनका अवलम्बन लेता है । सहज रूपसे अपने भीतर जो तथा जैसा देखता है उसीका अध्ययन करता है। इस प्रकार उसका शास्त्राध्ययन स्वाध्ययन या स्वाध्यायके रूपमें रूपान्तरित हो जाता है। बाह्य जगत्के ऐन्द्रिय विषयोंके प्रति यद्यपि उसे अभी पूरा वैराग्य नहीं आया है, तदपि गुरु कृपासे देशना लब्धिके द्वारा इतना वैराग्य अवश्य प्राप्त हो गया है कि वह बाह्य विषयोंको निःसार देखते हुए उनको कुछ देरके लिए उपेक्षा कर सके । फलस्वरूप परिणामोंको विशुद्धि उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होने लगती है।
परिणाम-विशुद्धिके इस विकासको लक्ष्यमें रखकर हम करणलब्धिके स्वरूपका दो दृष्टियोंसे अध्ययन कर सकते हैं-एक जीवकी अपेक्षा और अनेक जीवोंकी अपेक्षा। एक जीवकी अपेक्षा अध्ययन करनेपर हम देखते हैं कि प्रति क्षण उसके परिणाम अधिक-अधिक विशुद्ध होते जाते हैं । साथ-साथ ज्यों-ज्यों ऊपर जाता है विशुद्धिवृद्धिको गति भी बढ़ती जाती है। अनेक जीवोंकी अपेक्षा अध्ययन करनेपर हम देखते हैं कि करण-लब्धिमें युगपत् प्रवेश करनेवाले अनेक जीवोंके परिणामोंमें तरतमता पाई जाती है। कुछके परिणाम कम विशुद्ध होते हैं, कुछ के अधिक ओर कुछके परस्पर समान । परन्तु ज्यों-ज्यों ऊपर जाते हैं त्यों-त्यों यह तरतमता घटती जाती है, यहांतक कि अन्तमें जाकर सबके परिणामों की विशुद्धि समान हो जाती है।
इस विषयको अधिक स्पष्ट करनेके लिए आचार्यों ने इस लब्धिके स्वरूपको उत्तरोत्तर उन्नत तीन सोपानोंमें विभक्त करके दर्शाया
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