Book Title: Karm Rahasya
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendra Varni Granthmala

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Page 220
________________ ३२-सहज व्यवस्था २०५. मुझसे पहले भी सब दूसरोंका नाम मिटा-मिटा कर अपना नाम लिखते रहे होंगे, और मेरे पश्चात् भी कोई मेरा नाम मिटा कर अपना नाम लिख देगा । नाम मिटते रहे हैं, परन्तु वृषभगिरि पर्वत वहीं है। पृथिवीको जीतने वाले सब चले गये हैं परन्तु पृथिवी वहीं है । तब यह रक्तपात किस लिये ? क्या ही अच्छा हो कि तू भी इसी प्रकार विवेक चक्षुके द्वारा अपने कर्तृत्वकी पोलाहटको देख सके । 'वृषभ' नाम धर्मका है। 'धर्म' नाम स्वभावका है। 'स्वभाव' नाम विश्वकी सहज व्यवस्था का है । इस धर्मगिरिपर तू सदा से दूसरोंके कर्तृत्वको मिटा-मिटा कर अपने कर्तृत्वकी स्थापना करता आया है, परन्तु जिस प्रकार तू दूसरोंके कर्तृत्वका लोप करता रहा है उसी प्रकार तेरे भी कर्तृत्वका सदा लोप होता रहा है। जिस प्रकार पूर्वभवोंमें स्थापित तेरा कर्तृत्व आज कहीं नहीं है, उसी प्रकार आजवाला तेरा यह कर्तृत्व भी रहने वाला नहीं है। विश्व-व्यवस्थारूप यह धर्मगिरि ही सदासे अवस्थित है और सदा अवस्थित रहने वाला है। यह देखकर तथा समझकर तू कर्तृत्वसे विरत हो और ज्ञाता द्रष्टा' बनकर विश्वकी इस अक्षुण्ण स्वाभाविक व्यवस्थाका तमाशा देख । तेरे जैसे अनन्तानन्त अहंकार युगपत् इसे बदल देनेके लिये जोर लगा रहे हैं, परन्तु यह न आजतक कभी बदली है और न बदलेगी। यदि यहां तू यह कहे कि "अर्हन्त सिद्ध तो वीतरागी होनेके कारण कर्ता नहीं रहे, परन्तु मैं तो रागी हूं", तो राग ही कर्ता सिद्ध होता है तू नहीं। और राग क्योंकि अज्ञानस्वरूप होनेके कारण परमार्थतः मिथ्या है, इसलिये रागाधीन तेरा यह कर्तृत्व भी परमार्थतः मिथ्या है । यहां यदि तू यह कहे कि "व्यवहार भूमि पर तो मेरा कर्तृत्व सत्य है ही, तो यह मुझे स्वीकार है । अतः यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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