Book Title: Karm Rahasya
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendra Varni Granthmala

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Page 213
________________ १९८ २-कर्म खण्ड है। शास्त्रोंमें इसके विषयमें इससे अधिक अन्य कुछ भी लिखा हुआ उपलब्ध नहीं होता है। सम्यग्दर्शनके अभावमें भी स्थितिकी इस प्रकार क्षति हो जाना किसी साधारण हेतुसे नहीं हो सकता। देशना-लब्धिके पश्चात् कही गयी होनेसे यह स्पष्ट है कि कर्मोंकी स्थितिका इतना बड़ा अपकर्षण देशनालब्धिके प्रभावसे हुआ है, इसलिये देशनालब्धिका अर्थ केवल शाब्दिक देशना न होकर, हार्दिक कुछ है। हृदयमें ही वह शक्ति है कि एक क्षणमें व्यक्तिके जीवनको बदल डाले। हृदयसे निःसृत तथा हृदय में प्रविष्ट देशनासे शिष्यके हृदयमें यह विश्वास जागृत हो जाता है कि गुरु-कृपासे मेरा कल्याण अवश्य होगा और शीघ्र होगा । इसी प्रकारका आत्मविश्वास हो जाना ही कर्मोंकी स्थितिका घट जाना है। करणानुयोगकी भाषामें जिसे कर्मोकी स्थितिका अपकर्ष कहा गया है, उसे ही अध्यात्मकी भाषामें हम आत्मोत्कर्ष कह सकते हैं। इस लब्धिके हस्तगत हो जानेपर व्यक्ति अपनेको इतना हलका महसूस करने लगता है कि वह मानो इस पृथिवीको छोड़कर आकाश में उड़ा जा रहा है। जिस प्रकार सरका भार उतार देनेपर मजदूर या कुलो हलका हो जाता है उसी प्रकार तर्क वितर्क का तथा विकल्पोंका भार हट जानेपर व्यक्तिका चित्त हलका हो जाता है। यही प्रायोग्य लब्धि है, इसके बिना तात्त्विक क्षेत्रमें प्रवेश पाना सम्भव नहीं। ७. करण लब्धि ___'करण' शब्दका अर्थ परिणाम है, इसलिये उत्तरोत्तर वृद्धिगत परिणाम-विशुद्धि ही इस लब्धिका लक्षण है। ज्यों-ज्यों परिणाम विशुद्ध होते जाते हैं त्यों-त्यों संस्कारोंका आवरण हटता जाता है, और ज्यों-ज्यों संस्कारोंका आवरण हटता जाता है त्यों-त्यों परिणाम विशुद्ध होते जाते हैं । यहाँतक कि इस लब्धिकी पूर्णता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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