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२-कर्म खण्ड पढ़कर भी प्राप्त किया जा सकता है । जिनके पास हृदय नहीं है, जो हृदय लोककी बात नहीं जानते, वे इस रहस्यको समझ नहीं सकते। देशनाको शब्दोपदेश मात्र समझने वालोंकी दृष्टि भौतिक है।
देशना वास्तवमें शाब्दिक उपदेशका नाम नहीं है। शाब्दिक उपदेश हो या न हो उसका कोई अधिक महत्त्व नहीं है। देशनालब्धि हृदयसे हृदयमें होती है। गुरुके हृदय से शिष्यके प्रति जो आशीर्वाद-पूर्ण सद्भावनायें तथा प्रेरणायें निकलती हैं, उनका शिष्य के हृदय में स्पर्श हो जाना ही देशना-लब्धि है। जिस प्रकार माता तथा शिशु में द्वैत नहीं होता उसी प्रकार गुरु तथा शिष्यमें भी द्वैत नहीं होता। माता जिस प्रकार अपने शिशुको आत्मसात् कर लेती है, उसी प्रकार गुरु शिष्यको आत्मसात् कर लेता है । ऐसा हो जानेपर जिस प्रकार माता अपने प्रेमसे ही रोते हुए बच्चेको चुप करा देती है, उसके दुःख का हरण कर लेती है, उसी प्रकार गुरु भी अपने प्रेमसे ही शिष्य की तत्त्वाभिमुखी अभिलाषा अथवा छटपटाहटको शान्त कर देते हैं, निराशाका अपहरण कर लेते हैं, उसके जीवन में धार्मिक उत्साह जाग्रत कर देते हैं। ५. दीक्षा
शिष्यके व्यक्तित्वको बदल देनेवाली इस हार्दिक विधिको आचार शास्त्रमें 'दीक्षा' शब्दके द्वारा अभिहित किया जाता है। यद्यपि व्यवहार भूमि पर दीक्षाका स्वरूप केवल वेष देना अथवा पीछी कमण्डलु आदि पकड़ा देना मात्र प्रसिद्ध है, परन्तु इसका सैद्धान्तिक स्वरूप अत्यन्त गुह्य तथा रहस्यात्मक है। इसी कारण उसका उल्लेख शास्त्रोंमें प्राप्त नहीं है। हृदयभूमिमें प्रवेश किये बिना उसका परिचय पाना सम्भव नहीं, इसीलिये शब्दोंमें उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। यह रहस्य केवल गुरुगम्य है। ध्यान रहे कि यहां 'गुरु' शब्द के द्वारा जिस तत्त्वकी ओर मैं संकेत कर
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