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२- कर्म खण्ड
उत्तरोत्तर उन्नत विविध श्रेणियोंका अतिक्रम करते हुए इतना विशुद्ध हो जाता है कि उसे अपने दोष तथा दूसरोंके गुण दिखने लगते हैं, जिसके कारण वह बराबर आत्म-निन्दन, गर्हण, पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त आदिके द्वारा आत्म-शोधन करता रहता है । उसके परिणाम अधिक अधिक विशुद्ध होने लगते हैं । वह स्वदुःख सहिष्णु और पर-दुःखकातर बन जाता है । इस प्रकार परिणामोंमें प्रतिक्षण असंख्यातगुणी विशुद्धि होते जाना ही 'विशुद्धिलब्धि' का लक्षण है ।
इतना हो जानेपर भी व्यक्ति प्रायः स्वोपकारको भूलकर परोपकार में ही उलझा रहता है । स्वोपकार क्या वस्तु है इसे वह समझ नहीं पाता । परोपकार के कारण उसे 'यद्यपि लोकमें सर्वत्र प्रेम सहानुभूति तथा प्रशंसा प्राप्त हो जाती है, तदपि तत्त्वदृष्टि खुलने नहीं पाती, अर्थात् बाह्याभ्यन्तर इस जगत् की कार्य-कारण व्यवस्था किस प्रकार चल रही है और मेरा उसमें क्या तथा कितना स्थान है, इस रहस्य को वह हस्तगत नहीं कर पाता । यद्यपि प्रेमका कुछ विकास हो जानेके कारण वह गुणीजनोंकी अथवा गुरुजनोंकी विनय अवश्य करता है परन्तु अभिमानका लेश जीवित रहने के कारण गुरुके चरणों में आत्म-समर्पण का भाव उसके हृदयमें जागृत नहीं हो पातां, और इस प्रकार गुरुकी उपलब्धिसे वंचित रहता हुआ वह केवल पुण्यका बन्ध करता है, पारमार्थिक उन्नति नहीं । उसका यह पुण्य हृदयसे उद्गत होनेके कारण यद्यपि रूढिग्रस्त साम्प्रदायिक पुण्यकी अपेक्षा विशिष्ट प्रकारका होता है, तदपि अभिमान युक्त होनेके कारण पापानुबन्धकी सीमाका उल्लंघन करने नहीं पाता ।
४. देशना लब्धि
तथापि यदि पुण्यके वेगमें विवेकका पल्ला उसके हाथसे नहीं छूट जाता तो क्षयोपशम- लब्धिके द्वारा वह बराबर अपनेको उपदेश
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