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१९ - योग- उपयोग
१०३ करती है । जानने अथवा भोगनेके समय वह विषयकी अथवा दुःखसुख की प्रतीति करती है और करनेके समय वह हलन-डुलन रूप कार्य में प्रवृत्त होती है । विषय की अथवा सुख-दुःखकी प्रतीति करते समय वह 'उपयोग' कहलाती है और हलन-डुलन रूप कार्यमें प्रवृत्त होते समय 'योग' | वास्तव में ये दो शास्त्रीय संज्ञायें हैं जो उसकी द्विविध शक्तिके प्रति संकेत करती हैं ।
चेतना एक सामान्य शक्ति है जिसे प्रायः ज्योति के साथ उपमित किया जाता है। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंमें ज्योति और उसके साथ-साथ गति देखी जाती है, उसी प्रकार चेतनामें ज्ञान और उसके साथ-साथ क्रिया देखी जाती है । यही कारण है कि संस्कृतमें जितनी गत्यर्थंक धातुएँ हैं वे सब ज्ञानार्थंक भी मानी गयी हैं, जैसे अवगम, अधिगम, आगम, निगम आदि सब गत्यर्थक शब्द ज्ञानके वाचक हैं । 'मेरी इस विषयमें अच्छी गति है' ऐसा प्रयोग भी ज्ञानके विषय में ही होता है ।
इस प्रकार चेतनामें दो शक्तियां हैं-ज्ञान-शक्ति तथा क्रियाशक्ति । ज्ञानके प्रति उपयुक्त होने पर वह 'उपयोग' कहलाती है और क्रियाके प्रति उपयुक्त होने पर 'योग' । गति युक्त होनेके कारण यद्यपि ज्ञानात्मक उपयोग भी स्वयं एक क्रिया है तदपि योग शब्दके द्वारा जिस क्रियाका उल्लेख करना यहां इष्ट है वह हलन-डुलन रूप अथवा स्थानसे स्थानान्तर होने रूप होती है, जब कि उपयोगकी क्रिया विजयसे विषयान्तर होने रूप होती है। इसलिये दोनों क्रियाओं में जाति-भेद है ।
३. उपयोग
उपयोग संज्ञावाली ज्ञानात्मक क्रिया दो प्रकारकी होती हैज्ञान तथा दर्शन । ज्ञानमें अहम् इदं का द्वैत होता हैं जबकि दर्शनमें नहीं होता । ज्ञानेन्द्रियोंके माध्यमसे जब चेतना बाह्य जगत्के
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