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२- कर्म खण्ड
संक्रान्ति स्वाभाविक है । इसी प्रकार समग्र में इष्टानिष्टका द्वैत करके ग्रहण-त्याग करना भी भोक्तृत्व मात्र न होकर भोक्तृत्व क्रिया है । कर्तृत्व की भांति ये दोनों क्रियायें भी वास्तव में प्रवृत्तिरूप हैं। इसलिये इनमें योगकी प्रधानता है । 'योग' शब्दका व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थं दो पदार्थोंका पारस्परिक जुड़ान है। उक्त तीनों कार्यों में क्योंकि चेतनाका जुड़ान करणोंके साथ होता है इसलिये 'योग' कहा जाता है । इस शब्दका सैद्धान्तिक लक्षण क्रिया अथवा परिस्पन्दन है । उपयोगका एक विषयको छोड़कर दूसरे विषयके प्रति धावमान होना ज्ञातृत्व पक्षकी क्रिया है, इष्ट विषयको ग्रहण करके अनिष्ट विषयका त्याग करना भोक्तृत्व पक्षकी क्रिया है और कर्मेन्द्रियोंके द्वारा काम करना कर्तृत्व पक्षकी क्रिया है ।
नेत्रादि ज्ञानेन्द्रियाँ क्योंकि पूर्व पूर्व विषयको छोड़कर उत्तरउत्तर विषयकी ओर दौड़ती रहती हैं इसलिये क्रियारत हैं। चित्त नामसे अन्तष्करणकी भागदोड़का चित्रण पहले कर दिया गया है, इसलिये वह भी क्रियारत है। हाथ पाँव आदि कर्मेन्द्रियोंका लक्षण क्रिया करना है, इसलिये वे भी क्रियारत हैं । इस प्रकार तीनों ही करण क्रियारत हैं । इन तीनोंकी क्रिया 'योग' कहलाती है ।
ये सब तो इनकी स्थूल क्रिया हैं । सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेपर इसका अर्थ परिस्पन्दन मात्र है । जब हम किसी वस्तुको जाननेका अथवा करनेका अथवा भोगनेका संकल्प करते हैं, उस समय हम अपनी चेतना शक्तिको प्राण वायुके साथ युक्त करते हैं । उसकी प्रेरणा से प्राणवायु नस-नस में तथा मांस-पेशियों में दबाव उत्पन्न कर देती है । यह दबाव उस करणमें विशेष होता है जिसमें कि वह क्रिया करनी इष्ट होती है । परिणाम स्वरूप नसोंमें तथा मांसके पट्टों में कठोरता आ जाती है और उसके योगसे वह अंग अपने प्रतिनियत कार्यमें नियुक्त हो जाता है | शरीरके किसी अंगमें पीड़ा होनेपर जो लहर
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