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२३-भावकर्म
१३३ प्रकार फलकी आकांक्षाको हृदय में रखकर काम करना ही इसका स्वरूप है।
स्वार्थजन्य यह फलाकांक्षा ही वास्तवमें सकल कषायों तथा राग-द्वेषकी जननी है। कर्मके क्षेत्रमें जिस प्रकार कारणका भी कारण खोजते हुए हम राग-द्वेषपर पहुंचे हैं उसी प्रकार इस रागका भी कारण खोजते हुए हम स्वार्थपर तथा उसकी फलाकांक्षापर पहुंचते हैं। इसलिये राग-द्वेषको भी छोड़कर अब हम इस 'फलाकांक्षाको हो बन्धका हेतु कहेंगे, और इसे ही भाव बन्धका प्रधान तथा अन्तिम लक्षण कहेंगे।
फलाकांक्षा युक्त स्वार्थकृत कर्म सकाम कहलाता है और उससे 'निरपेक्ष केवल दुसरेकी प्रसन्नताके लिये किया गया कर्म निष्काम कहलाता है। जैन दर्शन जिस कर्मको कषायसे युक्त तथा अयुक्त होनेके कारण सकषाय तथा अकषाय कहता है उसे ही अन्य दर्शनकार फलाकांक्षासे युक्त तथा अयुक्त होनेके कारण सकाम तथा निष्काम कहते हैं। दोनोंका तात्पर्य एक है। संसार-वृद्धिका हेतु होने के कारण सकषाय अथवा सकाम कर्म साम्परायिक कहा जाता है, और इसका हेतु न होनेसे अकषाय अथवा निष्काम कर्म ईर्यापथ नाम पाता है।
स्वार्थमें सदा फल-भोगकी इच्छा रहती है। फल-भोगकी इच्छासे निरपेक्ष काम करना उसने नहीं सीखा है। इष्ट विषयोंकी प्राप्ति होती दिखती है तभी वह काममें प्रवृत्ति करता है अन्यथा नहीं। इसलिये भाव-बन्धका तथा राग-द्वेषका उपर्युक्त सकल विस्तार फल-भोगकी आकांक्षामें गभित हो जाता है। शास्त्रों में फलभोगकी आकांक्षाको 'कामना' कहा गया है। सकषाय-कर्म वाची जैन मत तथा सकाम-कर्म वाचीअन्य मत इन दोनों मतोंका समन्वय करने के लिये इस विषयका कुछ और विस्तार करना उचित है। .
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