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२६-बन्धन
१४५ और कामनाके बिना अहंकार रहता नहीं। 'मैं जानू', 'मैं करूं', 'मैं भोगू' ऐसी त्रिविध कामना क्योंकि अहंकारकी उपज है इसलिये उससे युक्त सकाम कर्मको बन्धनकारी कहा गया है। इसका भी कारण यह है कि इस त्रिविध कामनाके हेतुसे अहंकारको अपने उस कर्ममें अथवा उसके द्वारा प्राप्त सुख दुःख आदि रूप फलमें ममकार हो जाना स्वाभाविक है। मेरा पदार्थ, मेरा कर्म, मेरा सुख, मेरा दुःख इत्याकारक मेरापना ही उसका स्वरूप है, जिसे शास्त्रोंमें स्वामित्व बुद्धि कहा गया है। इस स्वामित्वके कारण अहंकार उस विषयके साथ चिपका रहता है अर्थात् विकल्पोंका रूप धारण करके उसकी परिक्रमा करता रहता है। इस प्रकार बाहरकी कोई वस्तु अहंकारको नहीं चिपटती और न ही आभ्यन्तर ज्ञानका 'इदं' ही उसे चिपटता है। इन विकल्पोंके द्वारा 'अहं' ही इदंके साथ चिपटा रहता है, अपनेको भूलकर 'इदं' की उपासनामें जुटा रहता है। अहंकार कहनेसे पूर्ण अन्तष्करणका ग्रहण हो जाता है, यह पहले बताया जा चुका है। क्योंकि उसे अबतक 'चित्त' शब्दके द्वारा अभिहित किया जाता रहा है, इसलिये अहंकार शब्दको छोड़कर हम पुनः चित्त शब्दको पकड़ लेते हैं । २. चित्तबन्धन
चित्त जब अपने चैत्य (ज्ञेय) का चेता (ज्ञाता) मात्र न रहकर उसका स्वामी बन जाता है, तब उसे उसके साथ बन्धा हुआ कहा जाता है। सो कैसे ? वह बताता हूँ। यह बात पहले बताई जा चुकी है कि द्विधा विभक्त ज्ञानका अहंतावाला विभाग चित्तका निज स्वरूप है और उसके समक्ष उपस्थित इदंतावाला विभाग उसका चैत्य अथवा ज्ञेय है। ज्ञानाकार होनेके कारण 'अहं' का रूप यद्यपि आदिसे अन्ततक एक रहता है, परन्तु संकीर्ण होनेके कारण अथवा अतृप्त कामनाके कारण 'इदं' का रूप बराबर
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