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२७-जीवन्मुक्ति
१५१ सत्यतीक्षा की जा रही है, आधार शास्त्रका तिरस्कार नहीं। हमें तो बेवक यामहै कि यहां भी कुछ आकर्षण विकर्षण है या नहीं। शुभमें प्रवृत्ति अशुभसे निवृत्ति । देव पूजा आदि किन्हीं विषयोंका ग्रहण और विषय-भोग आदि किन्हीं विषयोंका त्याग । यही तो 'राग-द्वेष' है।
यह बात अवश्य है कि भोगाकांक्षा वाले लौकिक राग-द्वेष में तथा आत्मकल्याणकी आकांक्षावाले पारमार्थिक राग द्वेषमें आकाशपातालका अन्तर है। लौकिक राग-द्वेष से जहाँ विषयासक्तिकी वद्धि होती है वहाँ ही पारमार्थिक राग-द्वेष से उसकी हानि होती है। लौकिक राग-द्वेष से जहाँ क्रोधादि कषायोंकी उत्पत्ति होती है वहाँ ही पारमार्थिक राग द्वेषसे उनकी हानि होती है। लौकिक राग-द्वेष से जहाँ अशुभ अथवा पापका बन्ध होता है और उसके फलस्वरूप अनेक प्रकारके दुःखोंकी प्राप्ति होती है, वहाँ ही पारमार्थिक राग-द्वेष से शुभ अथवा पुण्यका बन्ध होता है और उसके फलस्वरूप अनेक प्रकारके सुखोंकी प्राप्ति होती है। इतना कुछ होनेपर भी हैं तो आखिर वे राग-द्वेष ही। और इनके द्वारा होनेवाले पाप अथवा पुण्यका बन्ध भी है तो आखिर बन्ध ही। राग हो या द्वेष, पुण्य हो या पाप, हैं तो सब परस्पर विरोधी द्वन्द्व ही। २. द्वन्द्व-मुक्ति
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि चित्त इन द्वन्द्वोंको किस प्रकार काटता है। बाह्य दृष्टिसे देखनेपर भले ही यह बात असम्भव सरीखी हो परन्तु आभ्यन्तर दृष्टि से देखने पर यह कुछ कठिन काम नहीं है। केवल सत्यासत्य विवेक जागृत करना है। तनिक यह विचारिये कि क्या इन द्वन्द्वोंमें तनिक मात्र भी कुछ सत्य है या कोरी कल्पनायें हैं। अपने नाम तथा रूपको लेकर कोई पदार्थ
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