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२९. दस करण
१. कर्म-सिद्धान्त
कर्म-सिद्धान्तके क्षेत्रमें करणानुयोग दस करणोंका अथवा दस अधिकारोंका कथन करता है। द्रव्य-कर्मकी भाषामें निबद्ध उस विवेचनाका संक्षिप्त सा चित्रण 'कर्म-सिद्धान्त' नामकी अपनी पुस्तकमें पहले ही कर चुका हूँ । भाव-कर्मकी भाषामें उसे समझनेसे पहले पाठकको चाहिये कि एक बार उस पुस्तकमें निबद्ध विवेचनाको पुनः पढ़ ले। लीजिये आपकी सुविधाके लिये यहां भी मैं उसका संक्षिप्त सा सार प्रस्तुत करता हूँ। उन दस करणोंके नाम हैं-बन्ध, उदय, सत्त्व, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण, उपशम, क्षय (क्षयोपशम), निधत्त तथा निकाचित ।
बन्धके अन्तर्गत चार विकल्प हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश । विविध प्रकारकी राग-द्वेषात्मक कामनाओं के अनुसार कार्मण वर्गणाओं में उस-उस जातिकी फलदान शक्तिका उत्पन्न हो जाना प्रकृति-बन्ध है, जो ज्ञानावरण आदिके भेदसे आठ प्रकारका प्रसिद्ध है। उस फलदान शक्तिको कार्मण-वर्गणा जितने कालतक अपने भीतर समाकर रख सकती है, वह उसकी स्थिति
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