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२९-दस करण
१६७ कहलाती है, और उसकी तीव्रता मन्दता अनुभाग कहा जाता है। प्रकृतिबन्धसे उस फल-दान शक्तिकी जातिका निर्णय होता है और अनुभागसे उसकी तीव्रता मन्दताका, यह दोनोंमें भेद है। स्थिति उसकी आयु है, जिसके बीत जानेपर कार्मण-वर्गणामें स्थित वह फलदान शक्ति क्षीण हो जाती है। कार्मण-शरीरमें उस प्रकृति या जातिवाली कितनी कार्मण वर्गणायें बन्धको प्राप्त हुई हैं और प्रत्येक कार्मण-वर्गणा कितने परमाणुओंके संघातसे निर्मित हुई है, इस बातका निर्णय प्रदेश-बन्ध करता है।
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश इन चारों विकल्पोंको लेकर नई-नई कार्मण वर्गणायें प्रति समय कार्मण-शरीरके साथ संश्लेष-सम्बन्धको प्राप्त होती रहती हैं, यही द्रव्य-कर्मका बन्ध कहलाता है।
बन्धको प्राप्त इन वर्गणाओंका फलोन्मुख हो जाना उनका उदय कहलाता है। अपनी अपनी प्रकृति तथा अनुभागके अनुसार वे उदय में आकर जीवको फल देती हैं, अर्थात् ज्ञान दर्शन आदिक उसकी स्वाभाविक शक्तियोंको बाधित अथवा विकृत करती हैं, और उसके लिये शरीर, आयु तथा भोग-सामग्री की व्यवस्था करती है। यहां कर्तृत्वका अर्थ निमित्तकी अपेक्षा समझना उपादानकी अपेक्षा नहीं। अपना-अपना तीव्र या मन्द फल प्रदान कर देनेके पश्चात् वे कार्मण-शरीरसे झड़ जाती हैं। यह सव उस-उस कर्मका उदय कहलाता है।
एक समयमें राग-द्वेषात्मक प्रवृत्तिके कारण जितनी कार्मणवर्गणायें कार्मण-शरीरके साथ बन्धको प्राप्त होती हैं वे सबकी सब एक समयमें फल नहीं देतीं। उन सारी वर्गणाओंका कुछ मात्र भाग ही उदयको प्राप्त होकर झड़ता है, शेष सारी वर्गणायें कार्मण
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