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२- कर्म खण्ड
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फेंक दिया जाता है । इस प्रकार कभी भीतर और कभी बाहर | भीतर तथा बाहर की इस खींचतान में न जाने उसके कितने जन्म बीत जाते हैं, परन्तु रसकी उस आद्य मधुर स्मृतिके कारण वह पुरुषार्थ से पीछे नहीं हटता । यद्यपि भीतर-बाहर की इस खींचतान में उसे समताका वैसा रस नहीं आता जैसा कि उपशम वाले उस आद्य क्षण में आया था, तदपि उसका कुछ-कुछ स्वाद अवश्य आता रहता है । संस्कारोंकी इस नाट्यलीला को करणानुयोगकी भाषामें 'क्षयोपशम' कहते हैं । इस अवस्थामें संस्कार यद्यपि उसे समताका पूरा रस लेने नहीं देते और न ही रसानुभूति में नैरन्तर्य आने देते हैं तदपि पुरुषार्थसे उसे पीछे हटा दें इतनी सामर्थ्य उनमें अब नहीं है ।
इस पुरुषार्थ के कारण उदयमें आनेसे पहले हो अर्थात् उससे पूर्ववर्ती क्षणमं ही सत्ता स्थित संस्कारकी शक्तिका अथवा अनुभागका इतना अपकर्षण हो जाता है कि वह रसानुभूति में भले ही कुछ कभी उत्पन्न कर दे परन्तु उसका सर्वथा लोप कर सके, इतनी सामर्थ्य उसमें नहीं रहती । संस्कारकी शक्तिका कुछ क्षीण हो कर उदयमें आना अथवा यह कह लीजिये कि शक्ति क्षीण हो जानेके कारण संस्कारको अपना पूरा प्रभाव डालनेका अवसर प्राप्त न होना ही 'क्षय: पशुम' का लक्षण है ।
जिस प्रकार मोतिया बिन्दुके कारण अन्धे हुए व्यक्तिकी आंखोंमें, अप्रेशनके द्वारा कदाचित् ज्योति आ जावे तो, एक क्षणसे अधिक वह आंखें खोल रखनेके लिये समर्थ नहीं हो पाता। बाहरके प्रकाशको सन्न करने के लिये समर्थ न होती हुई उसकी आँखें स्वतः मुंद जाती हैं । उसी प्रकार अनादि कालसे संस्कारोंके आधीन चले आनेवाले में गुरु कृपासे कदाचित् संस्कारोंका प्रशमन हो जावे और तत्फलस्वरूप अन्तस्तत्त्वकी रसानुभूति हो जावे तो,
एक
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