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२-कर्म खगड शरीरमें स्थित रहती हैं। उदय होकर अथवा फल देकर झड़ जानेके पश्चात् जितनी कुछ वर्गणायें कार्मण-शरीरमें शेष रहती हैं, वे सब मिलकर उस प्रकृति या कर्मकी 'सत्ता' कहलाती हैं। जिस प्रकार तिजोरीमें प्रतिदिन कुछ धन आता रहता है, प्रतिदिन उसमेंसे कुछ निकलता रहता है और शेष बहुत सा धन उसमें स्थित रहता है, उसी प्रकार यहां भी समझना। प्रतिसमय उस-उस प्रकृति, स्थिति तथा अनुभाग वाले अनेकों प्रदेश कार्मण-शरीरके साथ बँखते रहते हैं, प्रतिसमय अनेकों प्रदेश उदय होकर उसमेंसे झड़ते रहते हैं, और शेष बहुतसे प्रदेश उसमें स्थित रहते हैं। उसमें स्थित रहनेवाले ये शेष प्रदेश 'सत्ता' शब्दके वाच्य हैं। __ शुभ या अशुभ किसी परिणाम-विशेषके कारण, कार्मणवर्गणाओंमें स्थित उस-उस प्रकृतिवाली स्थितिका तथा अनुभागका घट जाना अपकर्षण कहलाता है। इसी प्रकार शुभ या अशुभ किसी परिणाम विशेषके कारण, उसकी स्थितिका तथा अनुभागका बढ़ जाना उत्कर्षण कहलाता है । फलदान शक्ति की जाति अथवा प्रकृतिका बदलकर अन्यरूप हो जाना संक्रमणका लक्षण है। पुण्यवाली प्रकृतियोंके अनुभागका उत्कर्षण, पापवाली प्रकृतियोंके अनुभागका अपकर्षण तथा पुण्य-प्रकृतियोंके रूपमें उनका संक्रमण हो जाना ही परम्परा रूपसे उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमका लक्षण है, जिनके कारण जीवकी स्वाभाविक शक्तियोंका विकास होता है । जिन कार्मण-वर्गणाओं अथवा कर्मों में अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण, उपशम, क्षय-क्षयोपशम कुछ भी सम्भव नहीं, ऐसे कठोर कर्म निधत्त तथा निकाचित कहलाते हैं। तहां निधत्तमें कदाचित् उत्कर्षण हो सकता है, परन्तु निकाचितमें यह भी सम्भव नहीं। २. बन्ध, उदय, सत्त्व
प्रसंगवशात् करणानुयोगकी भाषामें कर्म-सिद्धान्तके दस करणोंका परिचय देनेके पश्चात् मैं पुनः अध्यात्म-भाषाकी ओर आता
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