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२९-दस करण
१७१ अवस्थामें ये जीवको नवीन-नवीन कार्य करनेके लिये उकसाते रहते हैं, और जीवको इनका अनुसरण करना पड़ता है। हमारे प्रत्येक कार्यसे नये-नये संस्कार बननेका तथा पुराने संस्कार दृढ़ होनेका तो कार्य निरन्तर हो ही रहा है, जो काम हम वर्तमानमें कर रहे हैं वह भी संस्कारसे अछूता नहीं है। वास्तवमें जो कुछ भी हम करते हैं, उसकी पृष्ठ-भूमिमें संस्कार बैठा हुआ है। हमारा कोई भी कार्य, वह बाह्य-जगत् में किया जा रहा हो या आभ्यन्तर जगत्में, स्थूल हो या सूक्ष्म, नया हो या पुराना, जानने तथा भोगने विषयक हो या कुछ करने-धरने विषयक, शुभ हो या अशुभ, सब पूर्वसंचित संस्कारोंकी प्रेरणासे हो रहे हैं। बहिर्करणको अथवा अन्तष्करणको जब जैसा कुछ भी निमित्त प्राप्त होता है तब वैसा ही संस्कार जागृत हो जाता है, और हमको उसी जातिका काम करनेके लिये प्रेरणा करने लगता है। बड़े-बड़े योगी भी सहसा इसके वेगको सहन करनेके लिये समर्थ नहीं हैं, तब साधारण व्यक्तिको तो बात ही क्या ? कदाचित् वह काम न भी करना चाहें तो भी उसकी प्रेरणासे प्रायः करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है। संस्कारकी यह जागति उसका उदय होना कहलाता है। कार्यके प्रति प्रेरित करना उसकी फलाभिमुखता है और उसकी प्रेरणासे जो कार्य हम करते हैं वह उसका फल है।
किसी एक कार्यके द्वारा किसी एक समयमें बंधको प्राप्त संस्कार उत्तर क्षणमें उदित होकर अथवा अपना फल देकर समाप्त हो जावे, ऐसा नहीं होता। जितनी स्थिति लेकर वह बँधा है अर्थात् जितने कालतक स्थित रहनेकी शक्तिको लेकर वह उत्पन्न हुआ है, उतने कालतक व्यक्तिको बराबर उसका फल प्राप्त होता रहता है, उतने कालतक बराबर उसे उसकी प्रेरणायें प्राप्त होती रहती हैं। इच्छा होते हुए या न होते हुए भी उतने कालतक बराबर व्यक्तिको उसका अनुसरण करना पड़ता है।
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