Book Title: Karm Rahasya
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendra Varni Granthmala

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Page 187
________________ २-कर्म खण्ड मन, वचन, कायके द्वारा नवीन कर्म करना अथवा उस कर्मके द्वारा कार्मण शरीरपर आद्य संस्कार अंकित हो जाना आस्रव है । अभ्यासवश इस संस्कारका घनीभूत हो जाना उसका बन्ध है । जन्म-जन्मान्तर में बंधको प्राप्त अनन्तों संस्कारोंका कार्मण शरीर के अथवा उपचेतनाके कोशमें प्रसुप्त पड़े रहना उसका सत्त्व है । सत्ता में स्थित इन प्रसुप्त संस्कारोंका यथासमय यथानिमित्त जाग्रत अथवा फलोन्मुख होकर जीवको नवीन कार्य करनेकी प्रेरणा देते रहना उनका उदय कहलाता है । बन्धको प्राप्त संस्कार ही जबतक प्रसुप्त रहते हैं, तबतक सत्तास्थित कहे जाते हैं और वे ही जब जागृत होकर प्रेरक बन जाते हैं तो उदयगत कहलाते हैं । इस • प्रकार बन्ध, उदय तथा सत्त्वमें घनिष्ठ सम्बन्ध है | १७२ ३. प्रपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण जितने कालतक उदित रहनेकी अथवा फल देते रहने की शक्तिको लेकर संस्कार बन्धको प्राप्त होता है वह उसकी स्थिति कहलाती है । इसी प्रकार तीव्र या मन्द जितना कुछ भी फल प्रदान करनेकी शक्तिको लेकर वह बन्धको प्राप्त हुआ है, वह उसका अनुभाग कहलाता है । संस्कार-विच्छेदका क्रम दर्शाते हुए यह बात बताई जा चुकी है कि अपने कर्मको स्वीकृतिसे तथा तद्विषयक आत्मनिन्दन, गर्हण, पश्चात्ताप आदिसे संस्कारोंकी शक्ति घटाई जा सकती है तथा संस्कारोंकी जाति भी बदली जा सकती है । गुरु आज्ञागत किन्हीं परिणाम विशेषोंके द्वारा संस्कारकी स्थितिका तथा अनुभागका घट जाना ' अपकर्षण' कहलाता है, तथा बढ़ जाना 'उत्कर्षण' कहलाता है । स्थितिका अपकर्षण हो जानेपर सत्ता में स्थिति कर्म या संस्कार अपने समय से पहले ही उदय होकर झड़ जाते हैं और स्थितिका उत्कर्षण हो जानेपर वे अपने समयका उल्लंघन करके बहुत काल पश्चात् उदयमें आते हैं । अपकर्षण तथा उत्कर्षणके द्वारा जिन तथा जितने कर्मोंकी अथवा संस्कारोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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