________________
२७ - जीवन्मुक्ति
१५५
किया गया था । आत्माका हित अथवा कल्याण होनेके कारण यह शिव है, और बन्धन - मुक्ति होनेसे मोक्ष ।
४. जीवन्मुक्ति
सकल विकल्प अस्ताचलको चले गये इसलिये यह निर्विकल्पता है, न तो यहाँ कुछ वैकल्पिक दिखाई देता है और न काषायिक, इसलिये यह शून्य है, महाशून्य । खरविषाणकी भाँति सर्वथा शून्य हो ऐसा नहीं है, समस्त विश्वको युगपत् आत्मसात् किये बैठा है. इसलिये विश्वरूप है, समग्र है, पूर्ण है । शून्य ही पूर्ण है और पूर्ण ही शून्य है । अनेकानेक वृक्ष वल्ली पत्र पुष्पादिसे समवेत वनराजकी भाँति अनेकताको अपने गर्भ में लिये यह एक है, अखण्ड है। तरंगित महासागरकी भाँति सकल अनित्यताओंको धारण किये यह नित्य है । इस प्रकार एकत्व अनेकत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, अन्यत्व-अनन्यत्व, तत्त्व अतत्त्व, द्वैत-अद्वैत, आदि विविध द्वन्द्वोंका एक अखण्ड पिण्ड होनेके कारण यह एकरस है । यह समग्र है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । यही 'अहं' है और यही 'इदं "" है, इसलिये यह केवल है । ज्ञानका पूर्ण वैभव होनेसे यह ज्ञान है, सर्व ग्राहक होनेसे यह सर्वज्ञता है, सर्वंगतता है । सर्वगत होनेसे यह विभु है और समस्त ऐश्वर्यको प्राप्त होनेसे यह प्रभु है ।
समग्रको प्राप्त होनेसे यह सिद्धि है, संसिद्धि है, प्रसन्नता है, प्रसाद है अथवा कृपा होनेसे यह राध है, आराधना है । करणोंका आश्रय छूट जानेसे अहंकारकी संकीर्णता नष्ट हुई । अहंकार पूर्णाहंता में रूपान्तरित होकर सन्तुष्ट हो गया, तृप्त हो गया । समस्त कृत्रिमतासे अतीत मेरात्रिकाली स्वभाव होनेसे यह धर्म है । मेरा निज स्वरूप होनेके कारण यह आत्मा है, Self है । निरन्तर अपने रसपान में मग्न होनेके कारण यह रसानुभूति है, आत्मानुभूति है, निजानुभूति है, स्वरूपानुभूति है, स्वभावानुभूतिः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org