________________
२-कर्म खण्ड कर दिया है' ऐसा अहंकार होता है। दोनों ही अहंकार हैं। जिस प्रकार वस्तुके ग्रहणसे उसके विकल्पका निषेध नहीं होता उसी प्रकार वस्तुके त्यागसे भी उसके विकल्पका निषेध नहीं होता।
इस रहस्यको समझाने के लिये गुरुने अपने शिष्योंको एक दिन ऐसा आदेश दिया कि आज भोजन करते समय तुम हाथीका ध्यान न करना। शिष्यने समझा कि यह तो बहुत सरल बात है। भोजनके समय तो क्या अन्य समयोंमें भी मैं हाथोका ध्यान करता ही कब हं ? परन्तु भोजन करने बैठा तो उसे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि आज न जाने क्यों मेरे चित्तके आगे हाथी खड़ा झूल रहा है। "अरे हाथी ! तू हट यहाँसे, गुरुकी आज्ञा थी कि हाथीका ध्यान न करना। तू बिना बुलाये क्यों आया ? रोज तो नहीं आता था आज कहांसे चला आया ? हट यहाँसे हट अरे ! मैं कह रहा हूँ सुनता नहीं ?" आप बताइये कि हाथी कैसे हटे ? 'अरे हाथी हट' यही तो हाथी है, इसके अतिरिक्त और क्या। निषेधका निषेध हो जानेपर हाथी स्वयं दूर हो जायेगा। ध्यान कीजिये कि मैंने निषेधका निषेध करनेकी बात नहीं की है, निषेधका निषेध होनेकी बात कही है। निषेध करनेका पक्ष स्वयं कर्तृत्व है, इसलिये इससे विकल्प शान्त नहीं होगा। विकल्पसे विकल्पका त्याग नहीं होता, उसकी उपेक्षासे होता है। हाथी रहे या जाये मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं, मुझे प्रयोजन केवल खानेसे है। बस हाथो पलायन कर गया। शिष्यने शान्तिसे भोजन किया, परन्तु गुरुके रहस्यात्मक उपदेशको वह समझ गया।
इसीको शास्त्रोंमें उपेक्षा-चारित्रके नामसे कहा गया है। ‘रहे या जाये मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं है' इत्याकारक उपेक्षा ही विकल्प-मुक्तिका एक मात्र साधन है। विकल्प-मुक्ति ही वह निराकुल सुख है, जिसे कि आत्माका हित बताकर ग्रन्थ प्रारम्भ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org