________________
१५८
२-कर्म खण्ड बात जोर देकर कही गयी है कि अध्यात्मकी दिशासे इस विषयको विवेचना यदि असम्भव नहीं है तो जटिल अवश्य है। यही कारण है कि करणानुयोग उपादानको भाषामें न बोलकर निमित्तकी भाषामें बोलता है। मुमुक्षुकी प्रतिभाका सार्थक्य इस बातमें है कि जिस प्रकार थर्मामीटरमें १०४ डिग्री तक चढ़े हुए पारेको देखकर हम रोगीकी ज्वर-वेदनाको जान जाते हैं, उसी प्रकार निमित्तकी भाषापर से वह उपादानको समझ जाये ।
कर्म-विधान नामक अधिकारमें द्रव्य-कर्म तथा भाव-कर्मका स्वरूप दर्शा दिया गया है। कार्मण-शरीरमें निबद्ध कार्मण-वर्गणायें परमाणुओंके द्वारा निर्मित होनेके कारण द्रव्य-कर्म कहलाती हैं और जीवात्माका राग-द्वेषात्मक भाव अथवा फलभोगकी आकांक्षा भाव-कर्म है। इन दोनों कर्मोंकी परस्परमें इतनी घनिष्ठ व्याप्ति है कि जिस प्रकार धूमको देखकर अग्निका ज्ञान हो जाता है, अथवा जिस प्रकार थर्मामीटरमें १०४ डिग्री दर्शानेवाले पारेको देखकर रोगीको अवस्थाका ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्य-कर्मकी अवस्थाओंको देखकर भाव-कर्मोंका अर्थात् जीवके भावोंका ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार भाव-कर्मकी अवस्थाओंपरसे द्रव्य-कर्मकी अवस्थाओंको भी जाना जा सकता है।
द्रव्य-कर्म सर्वथा जड़ है और भाव-कर्म कथंचित् चेतन । यद्यपि तत्त्व दृष्टिसे इन दोनोंके मध्य किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं है, तदपि इन दोनोंके मध्य एक ऐसा तत्त्व स्थित है जो कि व्यवहार-भूमिपर जड़को चिदाभासी और चेतनको जड़ाभासी बना देता है। उस तत्त्वको मैं संस्कार कहता हूं। कार्मण-वर्गणाका स्वरूप दर्शाते समय इसका नामोल्लेख किया गया है। करणानुयोग और अध्यात्मानुयोगमें, निमित्त और उपादानमें अथवा द्रव्यकर्म और भाव-कर्ममें सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये इस तत्त्वका कुछ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org