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२६-बन्धन
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या ममकारके साथ बन्धा है, स्वामित्व या ममकार अतृप्त कामनाके साथ बन्धा है और यह कामना 'इदं' के साथ बन्धी हुई है । इस प्रकार अनेक कड़ियोंकी यह परम्परागत श्रृंखला ही चित्तका बन्धन है. बाहरकी वस्तु केवल उसकी निमित्त मात्र है । उसके अभाव में भी क्योंकि चित्त अपने भीतर कल्पनाके द्वारा उसका निर्माण स्वयं कर लेता है, इसलिये उसके लिये बाहरकी वस्तु हो या न हो दोनों बातें समान हैं ।
३. स्वार्थ तथा परार्थ
समग्रको छोड़कर उसके अंगभूत किसी एक पदार्थपर केन्द्रित कामना क्योंकि स्वयं की तथा अहंकारको तृप्ति के प्रयोजनसे होती हैं, इसलिये वह स्वार्थ कहलाती है; परन्तु समग्रको हस्तगत करनेकी कामना क्योंकि अहंकारको पूर्णाहंता प्रदान करनेके प्रयोजनसे होती है, इसलिये वह परमार्थ कहलाती है । इसी प्रकार परोपकारकी कामना क्योंकि दूसरोंका हित करनेके लिए होती है, इसलिये वह परार्थ कहलाती है । कामना तीनों में समान है परन्तु फलभोग की आकांक्षासे युक्त होने के कारण स्वार्थ रञ्जित कामना बन्धनकारी है परमार्थ - रञ्जित तथा परार्थ रञ्जित नहीं ।
अन्य पदार्थों में चित्तकी यह स्वामित्व बुद्धि वास्तव में कर्तृत्व तथा भोक्तृत्वके कारणसे होती है । 'इस पदार्थको प्राप्त करने के लिये मैं यह काम करूं' इत्याकारक कामनासे प्रेरित होकर जो काम मैं करता हूँ उसीमें 'यह काम मैंने किया' ऐसा अहंकार होता है । इसीलिये उस कार्यमें तथा उसके द्वारा प्राप्त वस्तुमें मेरा स्वामित्व सहज हो जाता है । दूसरी ओर जिस कामको मैं केवल दूसरेकी प्रसन्नताके लिये करता हूँ उसमें तथा उसके द्वारा प्राप्त फलमें मेरा स्वामित्व भी नहीं होता है । अपने स्वामीके लिये किये गये काममें तथा उससे प्राप्त हानि-लाभमें मैनेजरकी आत्मबुद्धि
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