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२६. बन्धन
१. स्वामित्व बुद्धि
कर्म तथा उसके करणों आदि के विषयमें विवेचना पूरी हुई। अब बन्धन विषयक विवेचना प्रवेश पाती है। सकषाय कर्म अथवा सकाम कर्मको बन्धनकारी कहा गया है, परन्तु 'बन्धन क्या' यह पता नहीं चला। इस शंकाको समाहित करने के लिये मैं आपको अहंकारके स्वरूपकी स्मृति दिलाता हूँ। न हो तो एक बार उस अधिकारको पुनः पढ़ लीजिये। समग्रको आत्मसात न करके उसमें प्वायंट लगाना और उस प्वायंटको आत्मसात् करना अहंकार है। अपने विश्वव्यापी रूपको छोड़कर ज्ञानस्वरूप पूर्ण अहंका इस प्रकार संकीर्ण हो जाना ही उसका स्वरूप है। करणोंका आश्रय लेकर एकके पश्चात् एक पदार्थका ग्रहण करते हुए अपनेको पूर्ण करनेकी कल्पना करना उसकी यह अतृप्त कामना है जो आजतक न कभी पूरी हुई है और न आगे पूरी होनी सम्भव है।
इस प्रकार · अहंकार कहनेसे कामनाका और कामना कहनेसे अहंकारका अनुक्त ग्रहण हो जाता है। अहंकारके बिना कामना
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