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२५-सकाम-निष्काम कर्म
१४३ यहाँ यह शंका हो सकती है कि कामनाकी भाँति फलाकांक्षाका भो सर्वथा अभाव होना व्यवहार भूमिपर सम्भव नहीं। लौकिक क्षेत्रकी तो बात नहीं साधना क्षेत्रमें भी पूर्णकाम-भगवन्तोंको छोड़कर अन्य किसीको भी शत-प्रतिशत ऐसी स्थिति प्राप्त नहीं होती है। साधक कितना भी ऊँचा क्यों न हो अपनी-अपनी भूमिकाके अनुसार उसमें हीन या अधिक फलाकांक्षाका सद्भाव अवश्यम्भावी है। बाह्य किसी पदार्थके प्रति न भी हो, अपनी उस स्थितिके प्रति तो अहंकार होता ही है। यहां तक तो मैं आ चुका है, इससे आगे और बढ्' इत्याकारक कर्तृत्व विषयक कामना तथा 'इस स्थितिके रसपानमें अधिकसे अधिक टिक सकूँ' इत्याकारक ज्ञातृत्व तथा भोक्तृत्व विषयक सूक्ष्म कामना सिद्धान्तके अनुसार भी १०वें गुणस्थान तक रहती है ।
शंका उचित है, परन्तु यहां सिद्धान्त बताया जा रहा है, व्यवहार नहीं। सिद्धान्त पूर्णका प्रतिपादन करता है, क्योंकि स्वभावमें पूर्णता अपूर्णताका प्रश्न नहीं होता। पूर्णता, अपूर्णता अथवा गुणस्थानकी चर्चा आचार पक्षमें होती है। इसलिये साधक दशामें इस सिद्धान्तका आंशिक प्रयोग ही सम्भव है । जितने अंशमें फलाकांक्षा विद्यमान है उतने अंशमें उसे बन्ध अवश्य है, और जितने अंशमें फलाकांक्षाके अभाव रूप चारित्र अथवा समता विद्यमान है उतने अंशमें रसे बन्ध नहीं होता है।
येनांशेन तु चारित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥
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