Book Title: Karm Rahasya
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendra Varni Granthmala

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Page 156
________________ २५- सकाम - निष्काम कर्म १४१ मैंने किया' इस प्रकारका कोई अहंकार है । काम करने के समय भी उसकी बुद्धिपर कोई भार नहीं है । यह निष्काम कर्म का उदाहरण है । इसके विपरीत स्वार्थानुरंजित होनेके कारण सकाम कर्मकी प्रवृत्ति कषायमूलक होती है । स्वार्थ केवल अपने विषयको प्राप्त - करना जानता है, न्याय-अन्यायकी चिन्ता करना नहीं । इसलिये वह अनेकों प्रकारका मायाचार तथा छल कपट करता है, झूठ बोलता है, चोरी छप्पा करता है, दूसरोंको ठगता है । किसीको मेरी इस प्रवृत्तिसे कितना कष्ट हो रहा है इस चिन्तामें पड़नेके लिये उसके पास हृदय ही कहां है । जिस किस प्रकार अधिकाधिक संचय करते रहना ही उसका एक मात्र लक्ष्य है । कदाचित् पुण्योदय से उसकी किंचित् पूर्ति हो जानेपर उसे एक ओर तो अपने कर्तृत्वका अभिमान हो जाता है, और दूसरी ओर प्राप्त विषयको भोगने के प्रति रति तथा आसक्ति । इसीप्रकार किसी अशुभ कर्मके उदयसे यदि कदाचित् उसमें कुछ विघ्न पड़ जाये तो विघ्न करने वालेके प्रति जुगुप्सा तथा क्रोध, और दूसरी ओर नैराश्य, शोक, अरति तथा भय । इस प्रकार जीवनको कलुषित करनेवाली समस्त कषायोंका और उसे तमाच्छन्न करनेवाले समस्त पापोंका एकमात्र कारण स्वार्थ है । फलाकांक्षा की भूमि होनेके कारण वही लोभ है, जिसे पाप का बाप कहा गया है । ३. कर्म मी श्रकर्म स्वार्थसे अस्पृष्ट होनेके कारण परार्थं तथा परमार्थं दोनों ही प्रकार के कर्मोंमें यह सम्भव नहीं, क्योंकि पर-हितके लिये अथवा लोकोपकारके लिये किये गये सकूल कार्यबालककी भांति केवल कर्त्तव्य बुद्धिसे किये जाते हैं और इसी प्रकार सकल पारमार्थिक कार्य भी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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