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२-कर्म खण्ड करनेके कालमें तो यह विकल्प रहते ही हैं, काम पूरा हो जानेके पश्चात् भी वे समाप्त नहीं होते। सफल होनेपर हर्ष और असफल होने पर विषाद। दोनों ही अवस्थाओंमें आगामी जीवन विषयक विविध कल्पनायें जिनका कहीं अन्त दिखाई नहीं देता। यही तो है चित्तका सवसे बड़ा बन्धन । जिससे मुक्ति पानेके लिये फलाकांक्षाका निषेध किया गया है।
२. स्वार्थ ___दूसरी बात यह है कि फलाकांक्षाके साथ सदा तीन बातें संलग्न रहती हैं---स्वामित्व, कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व। बिना स्वामित्वके किसी विषयका भोग सम्भव नहीं। दूसरेकी वस्तुको जाना जा सकता है पर उसके विषयमें इसे 'मैं भोगूं' ऐसी इच्छा नहीं हो सकती । उस विषयपर स्वामित्व प्राप्त करनेके लिये कर्तृत्व आवश्यक है। बिना पुरुषार्थके कोई बाह्य विषय स्वतः प्राप्त नहीं हो जाता । इस प्रकार फलाकांक्षाके गर्भमें तीनों भाव स्थित हैं। अहंकारके राज्य में होनेके कारण ये तीनों भाव स्वार्थ कहलाते हैं । पर-हितार्थ होनेके कारण निष्काम कर्म स्वार्थसे विपरीत है, उसमें ये तीनों भाव सम्भव नहीं।
बालक माता-पिता अथवा गुरुकी आज्ञाको शिरोधार्य करके केवल अपना कर्तव्य पालन करता है, उस कामसे प्राप्त लाभहानिके साथ अथवा उसके द्वारा प्राप्त किसी पदार्थके स्वामित्वके साथ उसका कुछ सम्बन्ध नहीं । जो कुछ भी लाभ, हानि या प्राप्ति अप्राप्ति होती है वह सब माता-पिता या गुरुकी है, जिसके लिये चिन्तामें पड़नेकी उसे कोई आवश्यकता नहीं। काम करनेसे पहले जिस प्रकार खेल रहा था, काम करनेके पश्चात् भी उसी प्रकार खेल रहा है। उसे न कर्म जनित हर्ष है न विपाद, न ही 'यह काम
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