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२- कर्म खण्ड
किया गया है । व्यवहार भूमिपर किसी भी एक शब्दके कहने से यह सकल अर्थ ग्रहण हो जाता है, इसलिये शब्द प्रयोगमें कोई विरोध नहीं है, अर्थ समझना चाहिये ।
२. कर्मफल
अब हम पुनः अपने विषयपर आते हैं। ऊपर कहा गया है। कि फल - भोगकी आकांक्षासे युक्त कर्म सकाम कहलाता है । 'फल भोगकी आकांक्षा क्या' इस विषयका यहां थोड़ा-सा स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है । सकाम या निष्काम कोई भी कर्म क्यों न हो, उसका फल अवश्य होता है । ऐसा होना सम्भव नहीं कि कर्म किया जाये और उसका फल हमें प्राप्त न हो। फलका सीधा अर्थ यद्यपि दुःख अथवा सुखकी प्राप्ति है तदपि दुःख सुखका हेतु होनेसे विषय-प्राप्ति भी इसका परम्परा फलं कहा जा सकता है । अतः फल-प्राप्ति कर्तृत्व आधीन न होकर भोक्तृत्वके आधीन होती है । बीज बोका तथा उसे निरन्तर सिंचित करनेका काम हम कर सकते हैं परन्तु आम उत्पन्न करना हमारा काम नहीं है । वह हमारे कामके फलस्वरूप यथासमय स्वयं होता है । हम पाठका पुनः पुनः उच्चारण करनेका काम कर सकते हैं, परन्तु याद करना हमारा काम नहीं । याद तो उसके फलस्वरूप स्वयं होता है । जिसको अधिक योग्यता है उसे जल्दी होता है और जिसे कम योग्यता है उसे देरमें । कर्मका यथेष्ट ही फल हो यह भी कोई आवश्यक नहीं, कभी कभी वह पूरा होनेसे पहले ही नष्ट हो जाता है जैसे कि गर्भ में ही बालकका क्षय, और कभी-कभी वह हमारी इच्छाके विपरीत भी हो जाता है जैसेकि रोग-शमनके लिये दी गयी औषधि कभी-कभी रोगीको मार भी देती है ।
इतने कथनपर से कर्मफलके विषयमें चार सिद्धान्त निर्धारित होते हैं । १ - कर्मका फल अवश्य होता है । २ – वह सर्वथा
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