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२४-कामना
१३७ हमारी इच्छा के अनुसार हो यह आवश्यक नहीं, कभी कम हो जाता है, कभी अधिक और कभी विपरीत। ३-कर्म करनेकी भाँति फल प्राप्तिमें हमारा अधिकार नहीं है। वह होता है किया नहीं जाता। ४-चौथी बात यह है कि कर्म वर्तमानमें होता है और फल भविष्यमें, और कभी-कभी दूर भविष्य में । आज बीज बोया और ६ वर्षके पश्चात् आम प्राप्त हुए। आज किसीका उपकार किया और ५० वर्षके पश्चात् अवसर प्राप्त होने पर उसका प्रत्युपकार मुझे प्राप्त हुआ।
३. कामना त्याग ही कर्म त्याग - कामना केवल फलभोगकी ही हो ऐसा नहीं है, जानने तथा करनेकी भी होती है। बिना इच्छाके किसी भी काममें प्रवृत्त होना सम्भव नहीं, वह काम जाननेका हो या कुछ करनेका हो और या भोग भोगनेका हो। लौकिक कार्यों की तो बात नहीं, मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति भी मुमुक्षाके बिना सम्भव नहीं। लोकसंग्रहके अर्थ अथवा परोपकारके अर्थ किये गये काममें भी इच्छा अवश्य रहती है। अपने शिष्यको पढ़ानेमें प्रवृत्त गुरुके हृदयमें भी यह इच्छा अवश्य होती है कि यह शीघ्र पढ़ लिखकर योग्य हो जाये। किसी अपरिचित रोगीकी सेवा करनेमें भी यह इच्छा अवश्य होती है कि यह शीघ्र स्वास्थ्य-लाभ कर ले। इस प्रकार जब कोई भी कर्म इच्छा या कामनाके बिना सम्भव नहीं तब किसी कर्मको सकाम अथवा किसीको निष्काम कैसे कहा जा सकता है।
प्रश्न बहुत मर्मका है, लीजिये मैं सकाम तथा निष्कामकी सूक्ष्म सन्धिको स्पष्ट करता हूँ। वासना आदिका क्रम बताते हुए मैं यह बता चुका हूँ कि किसी भी कार्यके दृष्टिपथमें आनेसे पहले आभ्यन्तरके सूक्ष्म जगत्में बहुत कुछ हो चुका होता है। चित्तके कोषमें स्थित संस्कार ही ज्यों-ज्यों अभिव्यक्तिकी ओर उन्मुख होता
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