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२-कर्म खण्ड 'अशुभे निवृत्ति शुभे प्रवृत्तिं' वाले पारमार्थिक राग-द्वेषसे शुभ या पुण्यबन्ध होता है। इस विषयकी चर्चा आगे कहीं की जाएगी।
४. फलाकांक्षा
जिस प्रकार चित्र-विचित्र अनेक विकल्पोंको हम इष्ट तथा अनिष्ट रूप एक द्वन्द्वमें गर्भित कर सकते हैं, जिस प्रकार क्रोधादि अनेक कषायोंको हम आकर्षण तथा विकर्षण शक्तिसे युक्त राग तथा द्वेष इन दो में गर्भित कर सकते हैं, इसी प्रकार राग तथा द्वेषको भी संक्षिप्त करके हम एक स्वार्थमें गभित कर सकते हैं । लोकालोक-व्यापी सर्वगत-ज्ञान जब अपने समग्र-ग्राही स्वरूपको छोड़कर किसी एक पदार्थके प्रति उपयुक्त हो जाता है तब वह संकीर्ण होकर अहं से अहंकार बन जाता है । इस अवस्थामें ही वह अपने भीतर इष्टानिष्ट आदि रूप विविध द्वन्द्वों की सृष्टि करता है, जो आगे चलकर राग द्वेष का रूप धारण कर लेते हैं।
समग्र विश्वको युगपत् आत्मसात् करने वाला विशाल हृदय अथवा प्रेम जब एकको छोड़कर दूसरेके प्रति और दूसरेको छोड़कर तीसरेके प्रति धावमान होता है, तब वह स्वार्थ कहलाता है। इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टका त्याग करना ही इसका एक मात्र प्रयोजन है। वह जो कुछ भी करता है केवल इस प्रयोजनकी सिद्धि के लिये करता है। निष्प्रयोजन कोई भी काम करना उसने सीखा नहीं है । जैसे अपना कोई प्रयोजन न रखकर केवल शिशुकी प्रसन्नताके लिये काम करना मातृत्व का स्वरूप है, वैसा इसका स्वरूप नहीं है। काम करनेसे पहले वह यह सोचता है कि जिस कामको करनेका मैंने संकल्प किया है उससे मेरे इस प्रयोजनकी सिद्धि होगी या नहीं। यदि उस कामसे इस. फलकी प्राप्ति होती उसे दिखाई देती है तो वह काम करता है अन्यथा नहीं। इस
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