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कर्म सिद्धान्तके प्रकरणमें चेतनाकी योग तथा उपयोग ऐसी द्विविध शक्तिका अध्ययन किया गया । इन दोनों शक्तियोंमें यहां योग प्रधान है, क्योंकि ज्ञातृत्व, कर्तृत्व अथवा भोक्तृत्व क्रिया ही कर्मका लक्षण है । सामान्य स्पन्दनके रूपसे एक होते हुए भी यह करणको अपेक्षा तीन प्रकारका है - मनोयोग अर्थात् भावमन, वचनयोग अर्थात् भाववचन और काययोग अर्थात् भावकाय । मन, चित्त अथवा अन्तष्करणका विस्तृत विचार कई अधिकारोंके द्वारा किया जा चुका है, वचनके प्रकरणमें द्रव्यवचन प्रसिद्ध है और भाव-वचनका विस्तार मनके प्रकरणमें गर्भित हो जाता है । कायका विचार अभी अपर्याप्त है । कर्म सिद्धान्तके प्रकरणमें इसका बड़ा महत्त्व है, इसलिये आइये इसका कुछ विशेषता के साथ अध्ययन करें।
२१- शरीर
१. त्रिविध शरीर
यद्यपि व्यवहार-भूमिपर बाहरमें दिखनेवाला यह स्थूल शरीर ही प्रसिद्ध है परन्तु तात्त्विक दृष्टिसे देखनेपर इसके भीतर दो, अन्य शरीर विद्यमान हैं, जो सूक्ष्म होनेके कारण दृष्टिपथ में नहीं आते । स्थूल होनेके कारण इस बाह्य शरीरको शास्त्रोंमें औदारिक कहा गया है और जो दो सूक्ष्म शरीर इसके भीतर विद्यमान हैं
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