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२२- कर्म-विधान
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किए जा रहा है, और कौड़ी - कौड़ीका हिसाब रखे जा रहा है, तो तेरी सकल प्रवृत्ति अनुशासित हो जाती । समय आनेपर तू इसके दण्ड से बच नहीं सकेगा । विश्वके इस विधाता का विधान अटल है | मनुष्य, देव, इन्द्र, धरणेन्द्र कोई भी क्यों न हो इसकी दृष्टि से ओझल नहीं रह सकता और न ही इसके पाशसे बच सकता है । यह ही वास्तव में जगद्व्यापी वह महाशक्ति या तत्त्व है जिसे वैदिक कवियोंने वरुणदेव, यमराज अथवा धर्मराजके रूपमें चित्रित किया है, और जगत् की सकल कर्मव्यवस्थाका धाता विधाता तथा शास्ता बनाकर जिसे हमारी श्रद्धाकी वेदीपर प्रतिष्ठित किया है। बाहरका यह स्थूल शरीर रहे या न रहे परन्तु यह मरते तथा जीते हर समय जीवके साथ रहता है, और उसकी सकल कार्यवाहीका सूक्ष्म निरीक्षण तथा परीक्षण करता रहता है । इसलिए जड़ होते हुए भी यह चेतनवत् है, अथवा चिदाभासी है ।
चेतनाकी उक्त प्रवृत्तियोंके प्रति यह कार्य भी है और कारण भी है। कर्मके संस्कारोंको ग्रहण करके स्थित रहता है इसलिये यह उसका कार्य है । इसी प्रकार यथासमय फलोन्मुख होकर जीवको पुनः उसी प्रकारके कर्म करने के लिये उकसाता है, और चाहते हुए अथवा न चाहते हुए भी जीवको उसकी प्रेरणा से कर्म करना पड़ता है, इसलिये यह उसकी सकल प्रवृत्तियोंका कारण भी है । कर्म-प्रवृत्ति से कार्मण - शरीरपर संस्कारोंका अंकन होना, कुछ काल पश्चात् उसपर अंकित संस्कारोंका जाग्रत होना, इन जाग्रत संस्कारों की प्रेरणासे जीवका पुनः कर्मोंमें प्रवृत्त होना, उस प्रवृत्ति से पुनः कार्मण- शरीरपर संस्कारोंका अंकन होना. कुछ काल पश्चात् अंकित हुए संस्कारोंका पुनः जाग्रत होना और उन जाग्रत संस्कारोंकी प्रेरणासे जीवका पुनः कर्मोंमें प्रवृत्त होना, यह चक्र अनादि से चला आ रहा है और उस समयतक बराबर चलता रहेगा जबतक कि जीव गुरु कृपासे कर्मकी इस कार्य कारण
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