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२०. योग - विधान
१. त्रिकरण
करणोंके माध्यम से चेतना शक्तिका क्षुब्ध, चञ्चल, स्पन्दित अथवा क्रियाशील हो उठना उसका 'योग' कहलाता है । यद्यपि सामान्य रूपसे देखने पर उसकी चंचलता अथवा स्पन्दन ही योगका लक्षण है और वह एक ही प्रकारका है, परन्तु क्रिया अथवा कर्मकी अपेक्षा देखनेपर वह तीन प्रकारका है-ज्ञातृत्व, कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व । जिस प्रकार क्रियाकी अपेक्षा यह तीन प्रकारका है, उसी प्रकार करणोंकी अपेक्षा देखनेपर भी वह तीन प्रकारका माना गया है । यद्यपि त्रिविध क्रिया या कर्मके कारण सामान्य रूप से बहिर्करण और अन्तष्करण ये दो कहे गये हैं, और विशेष रूप से चौदह, तदपि उन सबका अन्तर्भाव तीनमें हो जाता है - मन, वचन
तथा काय ।
मन कहने से मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्त इन चारोंसे समवेत पूरे अन्तकरणका ग्रहण हो जाता है । वचन कहनेसे जिह्वाके वागिन्द्रिय वाले पक्षका और काय कहनेसे इसके अतिरिक्त शेष चार कर्मेन्द्रियोंका ग्रहण होता है। ज्ञानेन्द्रियोंका अन्तर्भाव मनवाले
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