________________
७८
१-अध्यात्म खण्ड वर्तीके लिये साधन। सिद्धान्तकी भाषामें कहनेपर साधन और साध्यमें कोई भेद नहीं है। पूर्ववर्ती पर्याय साधन है और उत्तरवर्ती उसका साध्य । जो आज साधन है वही कलको साध्यके रूपमें रूपान्तरित हो जाता है। यही व्यवहार तथा निश्चयकी मैत्री है। व्यवहार पक्ष ही ज्यों-ज्यों अन्तर्मुख होता जाता है त्यों-त्यों निश्चयका रूप धारण करता चला जाता है। यही जीवनका विकास है। ३. व्यवहारका वमन ___मैंने जो आगे बढ़ो कहा है उसका तात्पर्य इसी विकास-क्रमसे है। सोपान दर सोपान ही आगे बढ़ा जाता है, क्रमसे ही भूमियों का अतिक्रमण किया जाता है। किसी भी सोपान अथवा भूमिके साथ मत चिपको, उसके मोहमें न पड़ो। अगले सोपानपर पग रख देनेके पश्चात् पहले सोपानको छोड़ दो। उस सोपानको न छोड़ कर अगले सोपानपर पर पहुँचना असम्भव है। किसी भी सोपानके साथ चिपके रहना मोह है। जिस प्रकार व्यक्तिको लौकिक जीवनमें धन कुटुम्ब आदिके साथ ममत्व रहता है, उसीप्रकार साधनाके क्षेत्रमें भी उसे त्याग, तप, शास्त्राध्ययन आदिके प्रति ममत्व हो जाता है। वह उसे छोड़ना नहीं चाहता और उसे न छोड़ता हुआ ही आगे बढ़ना चाहता है। फलस्वरूप उसे कृत्रिमताओंको अपनाना पड़ता है, जिससे उसका जीवन समताकी ओर जानेकी बजाय पहलेसे भी अधिक विषमतामें उलझ जाता है। जैसा कि आजका साधक सामायिक गरित्रवालो साधुकी भूमिमें प्रवेश करके भी व्रत-त्यागवाली श्रावककी भूमिके साथ चिपका रहना चाहता है, जिससे परिग्रह तथा जन-संसर्ग घटनेकी बजाय और बढ़ जाता है।
औषधी रोगका साधन है यह सत्य है, परन्तु औषधी ही स्वास्थ्य नहीं है। इसी प्रकार 'साधनके बिना साध्यकी सिद्धि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org