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२-कर्म खण्ड किया गया अध्ययन केवल महंतताईके काम आता है । जीवनविकासकी यह अन्तः प्रेरणा जागृत हो जानेपर ही उसके हृदयमें आभ्यन्तर-जीवन की और बाह्य-जगतकी पहेलीको समझनेकी भावना स्फुरित होती है। ___ 'जगत्कायस्वभावौ वा संवेग-वैराग्यार्थम्' इस सूत्रका सार्थक्य इसमें ही है कि व्यक्ति बाह्याभ्यन्तर-जगतकी तात्त्विक-व्यवस्थाको समझे। सूत्र में प्रयुक्त 'जगत्' शब्द बाह्य-जगतका वाचक है और 'काय' शब्द आभ्यन्तर-जगतका क्योंकि जैसाकि आगे बताया । जायेगा तात्त्विक विचारणाके क्षेत्रमें 'काय' शब्द का अर्थ यह स्थूल शरीर न होकर अभ्यन्तरमें स्थित अत्यन्त सूक्ष्म वह कार्मण-शरीर होता है जिसमें कि जीवनकी सकल तात्त्विक-ज्यवस्था गर्भित है। बाह्य-जगतके स्वभावको देखनेसे संवेग उत्पन्न होता है अर्थात् बाह्यजगतसे भय लगने लगता है और इसके प्रतिका आकर्षण नष्ट हो जाता है। दूसरी ओर कार्मण-शरीर के स्वभावको देखनेसे विषयभोगसे विरक्ति हो जाती है। ये दोनों अंग जीवन के आध्यात्मिक विकासमें हेतु हैं। २. प्रस्तुत ग्रन्थ
'कर्म-रहस्य' नामसे कर्म-सिद्धान्तका जो विवेचन वर्तमानमें मैं आपके हाथोंमें दे रहा हूँ वह वास्तवमें कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है बल्कि कर्म-सिद्धान्त नामक उस पहली कृतिका ही द्वितीय खण्ड है, जो कि इससे पहले प्रकाशमें आ चुकी है। कर्म-सिद्धान्त नामक पुस्तकमें प्राथमिक जनोंको दृष्टिमें रखकर कथन किया गया है जब कि इसमें कुछ परिपक्व विद्यार्थियोंको दृष्टिमें रखकर। अत्यन्त परिपक्वके लिये तो आचार्य-प्रणीत करणानुयोग ही प्रयोजनीय है। प्राथमिक जनोंके लिये रचा गया होनेसे 'कर्म-सिद्धान्त' नामवाले पूर्व प्रकाशित ग्रन्थका कथन कुछ स्थूल है, जबकि मध्यम श्रेणी
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