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१८-कर्म-करण परन्तु वास्तव में देखा जाय तो बहिर्करण रूप दसों इन्द्रियों की शासक होने के कारण यही प्रधान इन्द्रिय है । ज्ञानकरणके द्वारा ग्रहण किया गया अथवा जाना गया प्रत्येक विषय और कर्मकरण द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य भोगनेके लिये इसे ही प्राप्त होता है। इसकी प्रेरणा पे ही वे अपने-अपने कार्य में नियोजित होते हैं। इसके उठनेपर वे उठ जाते हैं और इसके सोने पर वे सो जाते हैं। इसके क्रियाशील होनेपर वे सब क्रियाशील हो उठते हैं और इसके शान्त होने पर वे सब शान्त हो जाते हैं । इन्द्रियां इसकी आज्ञाकारिणी सेविकायें मात्र हैं।
जिस प्रकार बाह्य इन्द्रिय पांच-पांच हैं इसी प्रकार अनिन्द्रिय या अन्तष्करण के भी चार विभाग हैं-मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार । यद्यपि इन चारों में से किसी भी एक शब्द के कहने पर प्रायः इन चारोंसे समवेत पूरे अन्तष्करण का ग्रहण हो जाता है तदपि यहां उसका विशेष स्वरूप दर्शाना इष्ट होनेसे उसे चार भागों में विभाजित करके बताया जा रहा है। दर्शन-खण्डमें चित्त शब्द के द्वारा जिसका विस्तृत विवेचन किया गया है वह भी वास्तव में अकेला चित्त न होकर इन चारोंसे समवेत पूरा अन्तष्करण है। शास्त्रों में इसके लिये 'मन' शब्द का प्रयोग बहुलता के साथ किया गया है। अन्य तीन शब्दों का प्रयोग वहां अत्यन्त विरल है। इसलिये इन चारों में क्या अन्तर है यह विवेक वहां हो नहीं पाता। आइये इन चारोंकी कार्यवाही का थोड़ा सा अध्ययन करें। ५. प्राभ्यन्तर शासन
अन्तष्करण की शासन-व्यवस्था अत्यन्त वैज्ञानिक तथा परिपूर्ण है। क्या मजाल कि इसकी प्रजा अर्थात् इन्द्रियां इसके प्रति तनिक सी भी कोई बेईमानी कर सकें। मन आदि चारों के पास अपनाअपना अक्षय कोश है जिसके आधार पर वे अपने-अपने शासन की
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