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१. अन्तर्मुख लोभ
दर्शन - खण्ड के द्वारा अन्तर्दृष्टि जागृत हो जानेपर और उसके द्वारा आभ्यन्तर-जगतका परिचय प्राप्त हो जानेपर अब कर्म - रहस्य प्रवेश पाता है । अब तक का कथन वास्तवमें इसकी भूमिका थी ।
१५ - कल्याणकी ओर
" आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिव मांहि न तातें, शिवमग लागो चहिये ||"
इस कारिकाका सकल रहस्य इसी सिद्धान्त में गर्भित है । सुख ही वह महा आकर्षण है जिसके कारण व्यक्ति कुछ न कुछ करनेमें प्रवृत्त होता है । यदि सुखका लोभ न हो तो कोई भी व्यक्ति कुछ करने की इच्छा न करे, जड़वत् अकर्मण्य हो जाये । परन्तु व्यक्तिको क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये यह सुखके लक्षणपर अवलम्बित है । बाह्य-दृष्टि वालोंको क्योंकि विषयभोग के अतिरिक्त अन्य किसी सुखका परिचय नहीं है इसलिए उनके प्रति
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